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-६. २५ ]
मोक्षप्राभृतम् ___ अस्या अयमर्थः-नागफणीए मूलं-नागौषधिः । नागिणितोएण-हस्तिनीमूत्रेण पिष्ट्वा । गभणाएण-गर्भे नागः सोसको यस्य स गर्भनागः सिन्दूरः सोऽपि मध्ये क्षिप्त्वा मद्यते । नागं होइ सुवण्णं नागः सीसकः । एतत्सर्वं मृत्तिकाभाजने क्षिप्त्वा अधोऽग्निः क्रियते खदिराङ्गारयिते सुवर्णं भवति । पुण्ययोगेन पुण्ययोगं विना सुवर्णं न भवति ब्रह्मादिभ्रष्टस्येति भावः तथायं आत्मा कालादिलब्धि प्राप्य सिद्धपरमेष्ठी भवतीति भावार्थः ।
वर वयतवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ निरइ इयरेंहिं। छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं ॥२५॥
वरं व्रततपोभिः स्वर्गः मा दुःखं भवतु नरके इतरैः ।
छायातपस्थितानां प्रतिपालयतां गुरुभेदः ॥२५।। ( वर वयतवेहि सग्गो ) वरं ईषदुचौ वरं श्रेष्ठ व्रतस्तपोभिश्च स्वर्गो भवति तच्चारु । ( मा दुक्खं होउ निरइ इयरेहिं ) मा दुःख भवतु निरइ-नरकावासे, इतररव्रतरतपोभिश्च । ( छायातवट्टियाणं ) छायातपस्थितानां ये छायायां
अनुकूल बाह्यनिमित्त तथा पुण्योदय रूप अन्तरङ्गनिमित्त से सीसा सुवर्ण रूप हो जाता है उसी प्रकार अन्तरङ्ग-बहिरङ्ग-दोनों प्रकार की सामग्री के मिलने पर आत्मा परमात्मा हो जाता है। यहाँ काल आदि लब्धि के द्वारा जीव को उपादान शक्ति रूप अन्तरङ्ग योग्यता का वर्णन किया है और अतिशोभन योगके द्वारा गुरूपदिष्ट उत्तम शुभ योग-शुभध्यान आदि बाह्य सामग्री का वर्णन किया गया है। कार्य की सिद्धि में अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग दोनों प्रकार की सामग्रीका सद्भाव अपेक्षित है ॥२४॥ . गाथार्थ-व्रत और तपके द्वारा स्वर्ग का प्राप्त होना अच्छा है परन्तु - अव्रत और अतपके द्वारा नरक के दुःख प्राप्त होना अच्छा नहीं है । छाया
और घाम में बैठकर इष्ट स्थान की प्रतीक्षा करने वालों में बड़ा भेद है ॥२५॥
विशेषार्थ-व्रत तप आदि शुर्भापर्याग की परिणति से जीवको स्वर्ग प्राप्त होता है सो उसका प्राप्त होना भो कुछ अच्छा है । सम्यग्दृष्टि जोवका सर्वोत्तम लक्ष्य तो मोक्ष प्राप्त करना ही है परन्तु उसके अभाव • में स्वर्ग की प्राप्ति होना भी अच्छा है । आचार्य कहते हैं कि व्रत और तपके अभाव में पाप तथा अतप में प्रवृत्ति करने से इस जोवको जो नरक
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