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षट्प्राभृते [६. २४अइसोहणजोएणं सुद्ध हेमं हवेइ जह तह य ।। कालाईलद्धोए अप्पा परमप्पओ हवदि ॥२४॥
अतिशोभनयोगेन शुद्धं हेमं भवति यथा तथा च ।
कालादिलब्ध्या आत्मा परमात्मा भवति ॥२४॥ ( अइसोहणजोएणं ) अतिशोभनयोगेन सामग्रया अनन्धपाषाणादिकं अग्निमध्ये पचितं गरूपदिष्टौषधयोगेन । ( सुद्ध हेमं हवेइ जहं तह य ) शुद्ध षोडशवणिक हेमं सुवर्णं भवति यथा तह य-तथा च तथैव च ( कालाईलद्धीए) कालादिलब्ध्या कृत्वा कालादिलब्ध्यां सत्यां वा। ( अप्पा परमप्पओ हवदि ) .. आत्मा संसारी जीवः परमात्मा भवति-अर्हन् सिद्धश्च संजायते । उक्तं च
नागफणीए मूलं नागिणितोएण गब्भणाएण । नाग होइ सुवण्णं धम्मं तह पुण्णजोएण ॥१॥
भी पाठ संस्कृत टोकाकारको कहीं मिला है उसके अर्थ की संगति उन्होंने 'परभाव का पर-जन्मनि' अर्थ करके बैठाई है ॥२३॥
गाथार्थ-जिस प्रकार अत्यन्त शुभ सामग्री से-शोधन सामग्री से अथवा सुहागासे सुवर्ण शुद्ध होजाता है उसी प्रकार काल आदि लब्धियों से आत्मा परमात्मा हो जाता है।
विशेषार्थ--अन्ध पाषाण से सुवर्ण नहीं निकल सकता अतः उसके सिवाय जो अनन्ध पाषाण आदि पदार्थ हैं वे अग्नि के मध्य में पकाये जाने पर गुरुके द्वारा उपदिष्ट औषधके प्रयोग से शुद्ध-सोलहबानी के सुवर्ण बन जाते हैं, इसो दृष्टान्तको लेकर आचार्य आत्माके शुद्ध होनेका मार्ग दिखलाते हैं--जिस प्रकार अतिशोभन योगसे-अनुकूल उत्कृष्ट सामग्री से सुवर्ण शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार काल आदि लब्धियों से अथवा काल आदि लब्धियों के प्राप्त होनेपर आत्मा-संसारो जीव, परमात्मा बन जाता है-अर्हन्त सिद्ध हो जाता है। जैसा कि कहा है--
नागफणीए-नागफणी-शंपाफनी की जड़ को हस्तिनी के मूत्रके साथ पीसकर यदि उसमें सिन्दूर भो मिलाया जाता है तो सीसा सुवर्ण बन जाता है अर्थात् इन सबको मिट्टी के बर्तन में रखकर खैर के अंगारों में फूका जाय तो पुण्य योग से सुवर्ण बन जाता है, पुण्य योग के बिना कार्य को सिद्धि नहीं होती । इसका सार यह है कि जिस प्रकार विभिन्न १. अतिशोधनयोगेन इत्यपि छाया भवितुमर्हति ।
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