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-६. २३] मोक्षप्राभृतम्
५८५ इक्किं ) स सुभटः किं जीयते एकेन सुभटेन-अपि तु न जीयते ( णरेण संगामए सुहडो ) नरेण एकेन पुरुषेण संग्रामके एकस्मिन् संग्रामे ।
सग्गं तवेण सव्वो वि पावए तहि वि झाणजोएण । जो पावइ सो पावइ परलोए सासयं सोक्खं ॥२३॥
स्वर्ग तपसा सर्वोऽपि प्राप्नोति तत्रापि ध्यानयोगेन ।
यः प्राप्नोति स प्राप्नोति परलोके शाश्वतं सौख्यम् ।।२३।। ( सग्गं तवेण सम्बो वि पावए ) स्वर्ग तपसा कृत्वा उपवासादिना कायक्लेशेन सर्वोऽपि भव्यजीवोऽभव्यजीवोऽपि प्राप्नोति लभते । ( तहि वि झाणजोएण) तत्रापि सर्वेष्वपि जीवेषु मध्ये ध्यानयोगेन कृत्वा । ( जो पावइ सो पावइ ) यः प्राप्नोति स्वर्ग न पुमान् प्राप्नोति । ( परलोए सासयं सोक्खं) परलोके आगामिनि भवे शाश्वतमविनश्वरं सौख्यं परमनिर्वाणमिति शेषः । परभावे इति च क्वचित्पाठः तत्रायमर्थः-परभावे भवनं भावो जन्मोच्यते तस्मिन् परभावे परजन्मनीत्यर्थः ।
विशेषार्थ--जिस प्रकार अतिशय शरवीर योद्धा संग्राममें अजेय होता है उसी प्रकार जिनवर मतका अनुयायी मुनि भो परीषहों द्वारा अजेय होता है इसी बातको यहाँ दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट किया है कि जिसे करोड़ों योद्धा मिलकर नहीं जीत सकते उसे एक योद्धा के द्वारा जीतना अशक्य है इसी प्रकार जो साधु अनेक इन्द्रियों के विषयों से नहीं जीता जा सकता वह क्या एक इन्द्रिय के विषय से जोता जा सकता है ? अर्थात् नहीं जीता जा सकता ॥२२॥
गाथार्थ-तपसे स्वर्ग सभी प्राप्त करते हैं, पर जो ध्यान से स्वर्ग प्राप्त करता है उसका स्वर्ग प्राप्त करना कहलाता है, ऐसा जीव पर-भव • में शाश्वत-अविनाशी-मोक्ष सुखको प्राप्त होता है ।।२३।।
विशेषार्थ--उपवास आदि तपके द्वारा स्वर्ग तो भव्य-अभव्य-सभी जीव प्राप्त कर लेते हैं परन्तु उन सभी जीवों में ध्यान के योगसे जो स्वर्ग प्राप्त करते हैं वे यथार्थ में स्वर्ग प्राप्त करने वाले कहे जाते हैं क्योंकि ऐसे जीव स्वर्ग से आकर आगामी भव में अविनाशी सुख-मोक्ष सुख को प्राप्त कर सकते हैं । जो साधारण कायक्लेश से स्वर्ग जाते हैं उनका मोक्ष जाना निश्चित नहीं है । अभव्य जीव भो मुनिव्रत धारण कर तपके प्रभाव से नौवें ग्रेवेयक तक उत्पन्न हो जाता है परन्तु उसके मोक्षका कभी ठिकाना नहीं है । यहाँ परलोए' के स्थान में 'परभावे' ऐसा
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