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________________ ५८९ -६. २६-२७] मोक्षप्राभृतम् जो इच्छइ निस्सरिदु संसारमहण्णवस्स रुंदस्स । कम्मिधणाण डहणं सो झायइ अप्पयं सुद्ध॥२६॥ य इच्छति निस्सरितु संसारमहार्णवस्य रुद्रस्य । कर्मेन्धनानां दहनं स ध्यायति आत्मानं शुद्धम् ॥ २६ ॥ ( जो इच्छइ निस्सरिदु) यो मुनिवर इच्छति अभिलषति, किं कर्तुं ? निःसरितु पारं यातु । कस्य, ( संसारमहण्णवस्स रुदस्स ) संसारमहार्णवस्य संसारमहासमुद्रस्य । कथंभूतस्य, रुन्द्रस्य अतिविस्तीर्णस्य । ( कम्मिघणाण डहणं ) कर्मेन्धनानां दहनं कर्मकाष्ठानां भस्मीकरणं । ( सो झायइ अप्पयं सुद्ध) स मुनि ायति चिन्तयति, आत्मानं शुद्ध कर्ममलकलंकरहितं रागद्वेषमोहादिविभाववर्जितमिति शेषः । सव्वे कसाय. मोत्तुं गारवमयरायदोसवामोहं । लोयववहारविरदो. अप्पा झाएइ झाणत्थो ॥२७॥ सर्वान् कषायान् मुक्त्वा गारवमदरागद्वेषव्यामोहम् । लोकव्यवहारविरत आत्मानं ध्यायति ध्यानस्थः ॥ २७॥ गावार्थ-जो मुनि अत्यन्त विस्तृत संसार महासागरसे निकलनेकी इच्छा करता है वह कर्म रूपी ईंधन को जलाने वाले शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है ।। २६ ॥ - विशेषार्थ-यहां संसार रूपी महासागर से बाहर निकलने का उपाय आत्मध्यान बतलाया है । यह संसार महासागर के समान अतिशय विस्तुत है। इसके बीच मञ्जनोन्मज्जन करते हुए जीव अनादि कालसे दुःख उठा रहे हैं । आचार्य कहते हैं कि जो मुनि इस संसार रूप महासागर से पार होना चाहता है वह मुनि कर्म रूपी ईंधनको जलानेवाली शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है । वह विचार करता है-यद्यपि आत्मा वर्तमानमें कर्ममल से कलंकित हो रहा है तथापि आत्मा का यह स्वभाव नहीं है। शुद्ध निश्चयनय से आत्मा रागद्वेष मोह आदि विभाव भावों से रहित है, अतः पर-निमित्तसे स्वकीय आत्मामें उत्पन्न हुए विभाव भावोंको मुझे नष्ट करना चाहिये ।। २६ ।। . गाथार्थ-ध्यानस्थ मुनि समस्त कषायों और गारव मद रागद्वेष तथा व्यामोह को छोड़कर लोक व्यवहार से विरत होता हुआ आत्मा का ध्यान करता है ॥ २७ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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