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षट्प्राभृते
[८. ४-५ताव ण जाणदि गाणं विसयवलो जाव वट्टए जीवो। विसए विरत्तमेत्तो ण खवेइ पुराइयं कर्म ॥ ४॥ __तावन्न जानाति ज्ञानं विषयवलः यावत् वर्तते जीवः ।
विषये विरक्तमात्रः न क्षिपते पुराणकं कर्म ॥ ४॥ णाणं चरित्तहीणं लिंगग्गहणं च दंसणविहूणं । संजमहीणो य तबो जइ चरइ णिरत्ययं सव्वं ॥ ५ ॥
ज्ञानं चारित्रहीनं लिंगग्रहणं च दर्शनविहीनं । . . संयमहीनश्च तपः यदि चरति निरर्थक सर्व ॥ ५॥
ज्ञानको जानता भी है तो उसकी भावना दुःख से होती है फिर कोई जीव उसकी भावना भी करता है तो विषयों में विरक्त दुःख से होता है।
भावार्थ-पहले तो सम्यग्ज्ञान का होना ही दुर्लभ है। यदि किसीको सम्यग्ज्ञान प्राप्त भी हो जाता है तो निरन्तर उसकी भावना रखना दुर्लभ है और किसी को उसकी भावना भी प्राप्त हो जाती है तो विषयों से विरक्त होना कठिन है । इस प्रकार तीनों कार्यों में उत्तरोत्तर कठिनता अथवा दुर्लभपना है ॥३॥
तावण-जब तक जीव विषयों के वशीभूत रहता है तब तक ज्ञानको नहीं जानता और ज्ञानके बिना मात्र विषयोंसे विरक्त हआ जीव पुराने बंधे हुए कर्मोंका क्षय नहीं करता ।
भावार्थ-प्रथम तो विषयासक्त जीवको यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होती नहीं है और कदाचित् कोई जीव विषयों से विरक्त हो भी जावे तो यथार्थ ज्ञानके बिना वह पूर्व बद्ध कर्मोंकी निर्जरा करने में असमर्थ रहता है ॥४॥ ___णाणं-यदि कोई साधु चारित्र रहित ज्ञान का, सम्यग्दर्शन रहित लिङ्ग का और संयम रहित तप का आचरण करता है तो उसका यह सब आचरण निरर्थक है।
भावार्थ-हेय और उपादेय का ज्ञान तो हुआ परन्तु तदनुरूप चारित्र न हुआ तो वह ज्ञान किस काम का ? मुनि लिङ्ग तो धारण किया परन्तु सम्यग्दर्शन न हुआ तो वह मुनि लिङ्ग किस काम का ? इसी तरह तप तो किया परन्तु जीव रक्षा अथवा इन्द्रिय वशीकरण संयम नहीं हुआ तो वह तप किस काम का ? इस सब का उद्देश्य कर्मक्षय करके मोक्ष प्राप्त
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