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________________ १२२ षट्प्राभृते [३. १८क्वचित्कालानुसारेण सूरिद्रव्यमुपाहरेत् । . गच्छपुस्तकवृद्धयर्थमयाचिंतमथाल्पकम् ॥ इतीन्द्रनन्दिभगवतोक्तं त्वपवाद व्याख्यानम्। तत्रापि स्वहस्तेन न स्पृश्य किन्तु श्रावकादिहस्तेन स्थापनीयम । ( जइ लेइ अप्पबहुयं ) यदि लाति बराबर भी परिग्रह नहीं रखते। यदि कदाचित् अपने उदर पोषण की बुद्धिसे थोड़ा बहुत रखते हैं तो उसके फलस्वरूप निगोद को प्राप्त .. होते हैं। यहाँ संस्कृत टीकाकार ने लिखा है कि यह उत्सर्ग व्याख्यानसामान्य कथन प्रमाण रूप ही है किन्तु इन्द्रनन्दी भगवान् ने जो यह उल्लेख किया है कि क्वचित्-"कहीं आचार्य कालकी परिस्थिति के अनुसार गच्छ तथा पुस्तकों की वृद्धिके लिये उस द्रव्यको भी ग्रहण करते हैं जो बिना याचना के प्राप्त हुआ हो तथा अत्यन्त अल्प हो।" यह अपवाद व्याख्यान है। इस अपवाद मार्गका कथन करते हुए उन्होंने कहा है कि आचार्य उस अयाचित और अल्प द्रव्यको अपने हाथ से न छुए, श्रावक आदि के हाथ में ही रक्खें। अर्थात् उसके स्वामित्व के भागी न बनें ॥ १८॥ [प्रश्न-जब कि मुनि के शरीर है, आहार है, कमण्डलु है, पोछी है, शास्त्र है, तब तिल-तुष मात्र परिग्रह का अभाव किस प्रकार संभव है ? समाधान-मिथ्यात्व-सहित रागभाव से, अपना मानकर विषय कषायको पुष्टि के लिये जिस वस्तुको रखा जाता है उसे परिग्रह कहते हैं। ऐसे परिग्रह का अल्प या बहुत रखनेका निषेध किया है। संयम, शुचि और ज्ञानके उपकरणों का निषेध संभव नहीं है। शरीर, इच्छा करने पर भी आयुपर्यन्त छूट नहीं सकता है इसलिये उसके ममत्व भावके त्यागका ही उपदेश दिया है । यही शरीर रूप परिग्रह का छोड़ना है। जब तक शरीर है तब तक उसकी स्थिरता के लिये आहार आवश्यक है, अतः उसका सर्वथा त्याग नहीं हो सकता। संयम का साधन शरीर से होता है और शरीर की स्थिरता आहार से होती है, अतः चरणानुयोगके अनुसार शुद्ध आहार मुनि ग्रहण करते हैं। मयूर-पिच्छ संयमका उपकरण है उसके बिना जीव जन्तुओं की रक्षा नहीं हो सकती, अतः उसे ग्रहण करना आवश्यक बताया है। कमण्डलु शुचिता का कारण है उसके बिना मल मूत्रादि विसर्जन के समय शरीर की शुद्धि नहीं हो सकती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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