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________________ -३. १८] सूत्रप्राभृतम् १२३ गृह्णात्यल्पंबहुकं वा निजोदरपोषणबुद्धया च। ( तत्तो पुण जाइ निग्गोदं ) ततः पुनति निगोदं प्रशंसनीयगति न गच्छतीत्यर्थः ॥ १८ ॥ और शरीरको शद्धि के बिना शास्त्रका स्पर्श वर्जित होने से स्वाध्याय भी नहीं बन सकता, अतः कमण्डलु रखना मुनिके लिये आवश्यक है। अब रहा शास्त्र सो यह ज्ञानका उपकरण है, अतः इसे मुनि साथ रखते हैं इतना अवश्य है कि स्वाध्याय पूर्ण हो जाने पर वे उसे बिना किसी ममत्व भावके छोड़ देते हैं तथा एक दो-सोमित शास्त्र ही साथ रखते हैं । विशिष्ट अध्ययन के लिये मन्दिर या सरस्वती भवन आदिके अनेक शास्त्रोंका भी उपयोग होता है परन्तु उनके प्रति स्वामित्वका भाव न होने से वे परिग्रह की कोटि में नहीं आते। प्रश्न-मुनि के लिये परिग्रह त्यागका जो उपदेश है, वह उत्सर्ग मार्ग है परन्तु अपवाद मार्गमें वस्त्रादिक उपकरण रखे जा सकते हैं, ऐसा जैनाभास का कहना है । वे कहते हैं कि जिस प्रकार पीछी कमण्डलु और शास्त्र धर्मोपकरण हैं उसी प्रकार वस्त्रादिक भी धर्मोपकरण हैं । जिस प्रकार आहारके द्वारा क्षधाकी बाधा मेटकर शरोर द्वारा संयमका साधन किया जाता है उसी प्रकार वस्त्रादिके द्वारा शीत आदिकी बाधा दूर कर संयमका साधन किया जाता है, अतः वस्त्र और आहारादि परिग्रहमें कोई विशेषता नहीं है ? समाधान-विशेषता क्यों नहीं है ? शरीर की स्थिरताके लिये जिस प्रकार आहार अपरिहार्य है उस प्रकार वस्त्रादि अपरिहार्य नहीं है। वस्त्रादिकके बिना मनुष्य जीवित रह सकता है परन्तु आहार के बिना नहीं रह सकता, अतः वस्त्रादिक और आहारको समानता नहीं है। वस्त्रका ग्रहण मनुष्य अपना विकार भाव छिपाने के लिये करता है, अतः जिसके विकार भावकी संभावना है उसे वस्त्र धारण कर गृहस्थके वेषमें ही रहना चाहिये परिग्रह-त्यागीका उत्कृष्ट वेष रख कर अपनी दुर्बलता को छिपाने के लिये अपवाद मार्ग की कल्पना करना उचित नहीं है। फिर अपवाद मार्ग तो वह है जिसके अपनाने पर भी मुनिपद की रक्षा बनी रहे किन्तु इसके विपरीत जिसके अपनाने पर मुनि पद ही छूट जाय वह अपवाद मार्ग कैसा ? जिनागम में सब प्रवृत्ति को छोड़ ध्यानस्थ हो शुद्धोपयोग में लीन होने को उत्सर्ग मार्ग कहा है और दिगम्बर मुद्रा रख कर पीछी कमण्डलु सहित आहार विहार तथा उपदेशादिक में प्रवृत्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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