SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षट्प्राभूते [ ३. १९ जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स । सो गरहिउ जिण वयणे परिगहरहिओ निरायारो ॥ १९ ॥ यस्य परिग्रहग्रहणमल्पं बहुकं च भवति लिंगस्य । सगर्हणीयो जिनवचने परिग्रहरहितो निरागारः || १९|| ( जस्स परिग्गह गहणं ) यस्य मुनेः श्वेताम्बरादेः परिग्रहग्रहणं शासने भवति ( अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स ) अल्प- अर्द्ध फालिकादिक 'बहुयं - चतुर्विंशत्या - वरणादिकं भवति लिङ्गस्य कपटकपटसितपटादेर्वेषे । ( सो गरहिउ जिणवयणे ) तल्लिङ्गं स वेषो निन्दितोऽप्रशंसनीयो भवति । क्व ? ( जिणवयणे ) - श्रीवर्द्धमानगौतमादिप्रतिपादित सिद्धान्तशास्त्रे । तथा चोक्तं समन्तभद्रेण गुरुणा त्वमसि सुरासुरमहितो ग्रन्थिकसत्वाशयप्रणामा महितः । लोकत्रयपरमहितोऽनाव रणज्योतिरुज्ज्वलधामहितः || १२४ करने को अपवाद मार्ग बतलाया है। इसके विपरीत अन्य अपवाद मार्गकी कल्पना करना शास्त्र सम्मत नहीं है । ] ॥ १८ ॥ गाथार्थ - जिस वेष में थोड़ा या बहुत परिग्रह का ग्रहण होता है वह निन्दनीय है क्योंकि जिनवचन में परिग्रह रहित को ही मुनि बताया है ॥ १९ ॥ विशेषार्थ - जिस श्वेताम्बर आदि मुनिके परिग्रहका ग्रहण बताया है तथा जिस कपट कर्पट या श्वेताम्बर आदिके वेष में अर्द्धफालादिक अल्प तथा चतुर्विंशतिआवरणादिक अधिक परिग्रहं पाया जाता है वह वेष श्री भगवान् महावीर और गौतम आदि गणधरों के द्वारा प्रतिपादित शास्त्रमें निन्दनीय कहा गया है। जैसा कि समन्तभद्र गुरु ने कहा है । त्वमसि हे वीर जिन ! आप सुरों तथा असुरोंसे पूजित हैं, किन्तु परिग्रही प्राणियो के हृदय से प्राप्त होने वाले प्रणाम से पूजित नहीं हैं। आप तीनों लोकोंके प्राणियोंके लिये परम हित रूप हैं, आवरण-रहित केवलज्ञान रूप ज्योति से सहित हैं तथा दैदीप्यमान तेज से हितकारी हैं। यहाँ 'ग्रन्थिकसत्व' शब्दसे श्वेताम्बरों का ग्रहण करना चाहिये क्योंकि प्रभाचन्द्र ने क्रियाकलाप की टीका में ऐसी ही व्याख्या की है । उन श्वेताम्बरों में श्वेताम्बराभास लौंका गच्छ के साघु अत्यन्त निन्द्य हैं १. बहुयं च म० । २. स्वयंभस्तो समन्तभद्रस्य । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy