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सूत्रप्राभृतम् अत्र ग्रन्थिकसत्वाः सितपटाः प्रभाचन्द्रेण क्रियाकलापटीकायां व्याख्याताः, सितपटाभासास्तु -'लौकायतिका अतीव निन्द्या अशौचव्यवहारोछिष्टान्नभोजित्वात् । ( परिगहरहिओ निरायारो) परिग्रहरहितो हि मुनिनिरागारोऽनगारो यतिर्भवति यस्मात्कारणादिति शेषः ॥१९॥
पंचमहव्वयजुत्तो तिहिं गुत्तिहिं जो स संजदो होई। णिगंथमोक्खमग्गो सो होदि हु वंदणिज्जो य ॥२०॥ पञ्चमहाव्रतयुक्तः तिसृभिगुप्तिभिर्यः स संयतो भवति । निग्रन्थमोक्षमार्गः स भवति हि वन्दनीयश्च ॥२०॥ ( पंचमहन्वयजुत्तो) पञ्चमहाव्रतयुक्तः प्राणातिपातानृतादत्तपरिग्रहरहितः पुमान् पञ्चमहाव्रतयुक्त उच्यते । यस्तु स्तोकमपि परिगृहीतं करोति सोऽणुव्रतः क्योंकि वे नीच लोगोंके भी उच्छिष्ट अन्नको ग्रहण कर लेते हैं । यथार्थ में परिग्रहरहित मुनि ही मुनि कहलाते हैं ।
[भगवान् महावीर स्वामी स्वयं निर्ग्रन्थ थे तथा साधुओंके लिये उन्होंने निग्रन्थ वेषका ही प्रतिपादन किया था परन्तु कालदोष से मुनियों के निर्ग्रन्थ वेष में धीरे-धीरे ग्रन्थ-परिग्रह का प्रवेश होता गया। सर्व प्रथम अर्द्धफालिक रूप से मुनियों में परिग्रहका प्रवेश हुआ अर्थात् कुछ मनि आहार के लिये जब नगरों में जाते थे तब कटिसे नीचे का भाग एक वस्त्र से आच्छादित कर लेते थे, आहार के बाद उसे अलग कर देते थे। इन साधुओं को कपटकपट कहा है। इसके अनन्तर कुछ मुनि स्पष्ट रूप से श्वेत वस्त्र धारण करने लगे, वे सितपट या श्वेताम्बर कहे जाने लगे। ये साधु होकर भी वस्त्र पात्र तथा दण्ड आदि परिग्रह रखने लगे। आगे चल कर इन्हीं श्वेताम्बरों में लौका गच्छ के साधु हए जो सितपटाभास या श्वेताम्बराभास कहलाते थे इनका आचार प्रशस्त नहीं था। श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने परिग्रही जीवों का सामान्य उल्लेख करते हुए कहा है कि जिस लिङ्ग-साधु के वेष में थोड़ा या बहुत परिग्रहका ग्रहण है वह वेष गर्हणीय है अप्रशंसनीय है क्योंकि जिनागम में साधु को परिग्रह रहित ही बताया है। ] ॥ १९ ।। ___ गाथार्थ-जो पाँच महाव्रत और तीन गुप्तियोंसे सहित है वही संयत-सयमो-मुनि होता है और जो निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग को मानता है वही वन्दना करनेके योग्य है ॥ २० ॥ १. लोकायतिकाः म०।
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