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षट्प्राभृते
[३. २१
सागारोऽवतो वा कथ्यते । तेन वस्त्रादौ परिग्रहे सति तत्र यूकालिक्षादयस्त्रीन्द्रिया जीवा उत्पद्यन्ते । यदि ततोऽपनीयान्यत्र क्षिप्यन्ते ततो नियन्ते कथं प्राणातिपातकरहितो निरागारो भवति । अलमिति विस्तरेण, परिग्रहवान् महाव्रती न भवति । ( तिहि गुत्तिहि जो स संजदो होइ ) तिसृभिगुप्तिभियुक्तो यो मुनिः स संयतः संयमवान् भवति । (णिग्गंथ मोक्खमग्गो) निम्रन्थमोक्षमार्ग या मन्यते । ( सो होदि हु वंदणिज्जो ) स भवति हु-स्फुटं वन्दनीयः । ( यः ) सग्रन्थमोक्षमार्ग मन्यते स मिथ्यादृष्टिजेंनाभासश्चावन्दनीयो भवतीति भावार्थः ।। २० ॥
दुइयं च उत्तलिगं उक्किटु अवरसावयाणं च । भिक्खं भमेइ पत्तो समिदिभासेण मोणेण ॥ २१ ॥
द्वितीयं चोक्तं लिङ्गमुत्कृष्टमवरश्रावकाणाञ्च । भिक्षां भ्रमति पात्रः समितिभाषेण मौनेन ॥ २१ ॥ . .
विशेषार्थ-जो पुरुष, प्राणातिपात-हिंसा, अनृत-असत्यभाषण, अदत्त-चोरी, सुरत-स्त्रीसंभोग और परिग्रह-अन्तरङ्ग बहिरङ्ग परिग्रह इन पाँच पापों से सर्वथा विरत होता है वह पञ्चमहाव्रतका धारी कहलाता है। इसके विपरीत जो थोड़ा भी परिग्रह स्वीकृत करता है वह अणुव्रती गृहस्थ अथवा अवतो कहलाता है। जब साधु वस्त्र आदि परिग्रहको स्वीकृत करता है तब उन वस्त्र आदि में चीलर तथा जुएं आदि त्रीन्द्रिय जीव उत्पन्न हो जाते हैं। यदि उन जीवोंको वस्त्र आदि से अलग करके दूसरे स्थान पर डाला जाता है तो वे मर जाते हैं और उनके मरने पर साधु हिंसासे रहित कैसे हो सकता है ? अधिक विस्तार से क्या लाभ है, संक्षेपसे यही समझना चाहिये कि परिग्रही मनुष्य महाव्रती नहीं हो सकता। कायगुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्ति ये तीन गुप्तियाँ हैं । जो मुनि ऊपर कहे हुए पाँच महाव्रतों तथा तीन गुप्तियोंसे युक्त होता है वह संयमी कहलाता है। साथ ही जो मुनि निम्रन्थनिष्परिग्रह अवस्था को ही मोक्षमार्ग मानता है वह स्पष्ट रूप से वन्दना करनेके योग्य है । इसके विपरीत जो सग्रन्थ-सपरिग्रह अवस्थाको मोक्षमार्ग मानता है वह मिथ्यादृष्टि है, जैनाभास है तथा वन्दना के अयोग्य है ॥ २० ॥
गाथार्थ-दूसरा लिङ्ग उत्कृष्ट श्रावकोंका कहा गया है। यह उत्कृष्ट श्रावक भिक्षाके लिये भ्रमण करता है, पात्र सहित होता है १. पंडित जयचन्द्रजी ने अपनी भाषा वचनिकामें पत्ते पाठ स्वीकृत किया है ।
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