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-३. १८] सूत्रप्राभृतम्
१२१ निरम्बर यतीनाम् । ( भुंजेइ पाणिपत्ते ) भुञ्जीत भोजनं कुर्वीत कुर्यात् पाणिपात्रे निजकरपुटे । ( दिण्णणं इक्कठाणम्मि) श्रावकेण दत्त नत्वव्रतीना दत्त भुजीत, प्रासुकभोजनं किल सर्वत्र गृह्यते इति जैनाभासा ब्र वन्ति तदनेन विशेषव्याख्यानेन 'परित्यक्तं भवतीति भावितव्यम् । इक्कठाणम्मि-उद्भो भूत्वा एकवारं भुञ्जीतेति, यो बहुवारं भुङ्क्ते स वन्दनीयो न भवतीति भावार्थः ॥१७॥
जहजायख्वसरिसो तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्थेसु । जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं ॥१८॥ यथाजातरूपसदृशः तिलतुषमात्रं न गृह णाति हस्तयोः। यदि लाति अल्पबहुकं ततः पुनर्याति निगोदम् ॥१८॥ ( जहजाइरूवसरिसो ) यथाजातरूपः सर्वज्ञवीतरागस्तस्य रूपसदृशो नग्नशरीरः । ( तिलतुसमेत्तण गिहदि हत्थेसु ) तिलस्य पितृप्रियकणस्य तुषस्त्वङ्मात्र न गृह णाति हस्तयोरित्युत्सर्गव्याख्यानं प्रमाणमेव किन्तु
विशेषार्य-दिगम्बर मुद्राके धारी साधुओंके वालके अग्रभाग की अनीके बराबर अत्यन्त अल्प भी परिग्रह नहीं होता, अतः उन्हें अपने कर-पुटमें ही आहार ग्रहण करना चाहिये। वह आहार भी श्रावक के द्वारा दिया हुआ, न कि अव्रती मनुष्य के द्वारा दिया हुआ, और वह भी एक स्थान पर खड़ा होकर एक ही बार, न कि अनेक बार । श्वेताम्बर कहते हैं कि प्रासुक आहार सब जगह लिया जाता है, चाहे वह व्रतीश्रावक के द्वारा दिया हुआ हो और चाहे अव्रती के द्वारा। परन्तु इस विशेष व्याख्यान से ऐसे आहार का त्याग होता है, ऐसा समझना चाहिये । मुनि खड़े होकर एक ही बार भोजन करते हैं, बार-बार नहीं। जो जैनाभास घर-घर से भिक्षा लाकर अनेक बार खाता है वह वन्दना के योग्य नहीं है ॥ १७ ॥ - गाथार्थ-नग्न-मुद्राके धारक मुनि तिलतुष मात्र भी परिग्रह अपने हाथोंमें ग्रहण नहीं करते । यदि थोड़ा बहुत ग्रहण करते हैं तो निगोद जाते हैं ॥ १८॥
विशेषार्थ-'यथा-जात' तत्काल उत्पन्न हुए बालक को कहते हैं उसके समान जिनका रूप है वे सर्वज्ञ वीतराग हैं। उनके सदृश नग्न शरीरको धारण करने वाले निर्गन्थ साधु अपने हाथोंमें तिलको भुसी
१. प्रत्युक्तं म०॥
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