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षट्प्राभृते
[३. १७
त्रिविधेन मनोवचनकायप्रकारेण । ( जेण य लहेह मोक्खं ) येन चात्मतत्वेन लभेध्वं मोक्ष सर्व-कर्म-क्षय-लक्षणं परमनिर्वाणं प्राप्नुत यूयम् । अत्रापि चकार उक्त समुच्चयार्थः । तेन स्वर्गसौख्यं यथासंभवं सर्वार्थसिद्धिपर्यतं पूर्व लब्ध्वा पश्चान्मोक्ष लभेध्वम् । (तं जाणिज्जह पयत्तण ) तमात्मानं न केवलं श्रद्धत्त अपि तु जानीत विदांकुरुत चेति । कथम् ? प्रयत्नेन सावधानतया सर्वतात्पर्येणेत्यर्थः ॥ १६ ॥
वालग्गकोडिमित्तं परिगहगहणं ण होइ साहूणं । भुजेइ पाणिपत्ते दिण्णणं इक्कठाणम्मि ॥१७॥
वालाग्रकोटिमात्रं परिग्रहग्रहणं न भवति साधूनाम् ।
भुञ्जीत पाणिपात्रे दत्तमन्नं एक स्थाने ॥१७॥ ( वालग्गकोडिमत्त) वालस्य रोम्णोऽनकोटिमात्र अग्राग्रमात्र अतीवाल्पमपि । (परिगहगहणं ण हो साहूणं ) परिग्रहस्य ग्रहणं स्वीकारो न भवति साधूनमं
रहता है, अतः शुद्ध-वीतराग और बुद्ध-सर्वज्ञ रूप प्रमुख स्वभावसे युक्त उसी आत्मा की मन वचन कायसे श्रद्धा करो, तथा पूर्ण प्रयत्नसे सावधानता-पूर्वक पूर्ण लगनसे उसी आत्माको जानो जिससे सर्व कर्म-क्षय रूप लक्षणसे युक्त परम निर्वाणको प्राप्त कर सको। यहाँ जेण य-येन च शब्दके साथ जो चकारका प्रयोग किया है वह ऊपर कही हई बातका समुच्चय करनेके लिये है। उससे यह अर्थ ध्वनित होता है कि पहले सर्वार्थसिद्धि तकके स्वर्ग सुखको प्राप्त कर पश्चात् मोक्ष को प्राप्त कर सको।
[ आत्म-श्रद्धान होने पर भी जब तक चारित्र मोह-जन्य रागका सद्भाव रहता है तब तक यह जीव देवायका बन्ध करके प्रथम स्वर्गसे लेकर सर्वार्थ सिद्धि तकके सुख भोगता है और पीछे कर्मभूमिज मनुष्य पर्यायमें उत्पन्न होकर चारित्र मोह-जन्य रागका अभाव होने पर समस्त कर्मोका क्षय करके मोक्ष प्राप्त करता है ] || १६ ॥ __गाथार्थ-निग्रन्थ साधुओंके रोमके अग्रभाग की अनीके बराबर भी परिग्रह का ग्रहण नहीं, अतः उन्हें योग्य श्रावकके द्वारा दिये हुए अन्नका हस्तरूप पात्र में भोजन करना चाहिये और वह भी एक ही स्थान पर ॥ १७॥
१. स्वीकारो न करोति न भवति क० ।
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