SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -३. १६ ] सूत्रप्राभृतम् तपः-शीलादिकानि निरवशेषाणि समस्तानि पुण्यानि करोति । ( तह विग पावदि सिद्धि ) तथापि पुण्य कर्म प्रकारेणापि सिद्धि मुक्ति न प्राप्नोति । ( संसारत्थो पुणो भणिदो ) संसारस्थः पुनर्भणितः संसारी भवतीति सिद्धान्ते प्रतिपादितम् । उक्तञ्च देवसेनेन भगवता अइ कुणउ तवं पालेउ संजमं पढउ सयलसत्थाई। जाम ण झावई अप्पा ताम ण मोक्खं जिणो भणई ॥ १॥ एएण कारणेण य तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण । जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिज्जइ पयत्तेण ॥१६॥ एतेन कारणेन च तमात्मानं श्रदत्त त्रिविधेन । येन च लभेध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन ॥ १६ ॥ (एएण कारणेण य ) एतेन प्रत्यक्षीभूतेन कारणेन हेतुना । चकार उक्तसमुच्चयार्थः, बहिस्तत्वभूतपञ्चपरमेष्ठिकारणसूचनार्थ इत्यर्थः। (तं अण्या सद्दहेह तिविहेण ) तमात्मानं शुद्धबुद्ध कस्वभावमात्मतत्वं श्रद्धत्त यूयं रोचत यूयम्, करता वह दान पूजा तपशील आदि समस्त पुण्य कार्य करता हुआ भी सिद्धिको प्राप्त नहीं होता। उसे आगम में संसारी ही कहा गया है। ऐसा ही भगवान् देवसेन ने कहा है बइ कुणह-अतिशय तप करो, संयम पालो और समस्त शास्त्र पढो परन्तु जब तक आत्माका ध्यान नहीं किया जाता है तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं होता, ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं। (आत्म श्रद्धानके बिना दान पूजा तप शील आदि समस्त पुण्य कार्य शुभबन्धके कारण हैं जिनके फलस्वरूप यह जीव देव आदि गतियों में परिभ्रमण करता है। अतः मुक्ति प्राप्त करनेके लिये सर्वप्रथम आत्मस्वरूपकी प्राप्तिका पुरुषार्थ करना चाहिये ) ॥ १५ ॥ ..गायायं-इस कारण उस आत्माका मन वचन कायसे श्रद्धान करो तथा उसीको प्रयत्न पूर्वक जानो जिससे कि मोक्ष प्राप्त कर सको ॥१६॥ . विशेषार्थ-गाथामें आये हुए 'एएण कारणेण' इस पदसे पूर्व गाथाओं में प्रयुक्त संसारभ्रमण आदिका उल्लेख किया गया है। तथा चकारसे बाह्य तत्वभूत पञ्चपरमेष्ठी रूप कारण को सूचना दी गई है इसलिये गाथाका अर्थ यह हुआ कि चूंकि आत्म श्रद्धान के बिना दान पूजा आदि समस्त पुण्य कार्य करने पर भी तथा पञ्चपरमेष्ठी आदि बाब निमित्त मिलने पर भी यह जीव सिद्धिको प्राप्त नहीं होता, संसारी ही कहलाता. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy