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________________ ११८ षप्राभृते [३. १५छंडए कम्मं ) सुत्तढिओ-सूत्रस्थितः समयं जानन् यः पुमान् कर्म त्यजतिगृहस्थकर्म न करोति-वैयावृत्यं विना स्वयं रन्धनादिकं न करोति । (गणे (ट्ठियसम्मत्त) एकादशस्वपि स्थानेषु सम्यकत्वपूर्वको भवति । ( परलोयसुहंकरो होइ ) स्वर्गसौख्यं साधयति-षोडशसु स्वर्गेष्वन्यतमस्वर्गे उत्पद्यते ततश्च्युत्वा निग्नन्थो भूत्वा मोक्ष गच्छति ॥१४॥ अह पुण अप्पा णिच्छदि धम्माई करेदि निरवसेसाई। तहवि ण पावदि सिद्धि संसारत्यो पुणो भणिदो ॥१५॥ अथ पुनरात्मानं नेच्छति धर्मान् करोति निरवशेषाषान् । तथापि न प्राप्नोति सिद्धि संसारस्थः पुनर्भणितः ॥१५॥ (अह पुण अप्पा णिच्छदि ) अथ अथवा पुनरात्मानं नेच्छति आत्मभावनां न करोति । (धम्माई करेइ निरवसेसाई) धर्मान् करोति निरवशेषान् दानपूजा । को छोड़ता है और श्रावकके ग्यारहवें स्थानमें सम्यक्त्व-पूर्वक स्थित है। वह परलोकमें सुखको करने वाला होता है ।।१४। विशेषार्थ-इच्छा शब्द से नमः अर्थ कहा जाता है । कार शब्द उससे नीचे प्रयुक्त होता है अर्थात् कार शब्दका प्रयोग इच्छा शब्दके आगे किया जाता है, इसलिये समस्त इच्छाकार शब्दका अर्थ नमस्कार होता है । इसप्रकार गाथा का अर्थ यह हुआ कि जो इच्छाकार शब्दके महान् अर्थको जानता हुआ क्षुल्लक-ऐलक आदिको इच्छाकार करता हैइच्छामि या इच्छाकार करता हुआ वन्दना करता है, शास्त्रको जानता हुआ पद के विरुद्ध आरम्भ आदि कार्यों का स्पष्ट रूपसे त्याग करता है अर्थात् वैयावृत्यको छोड़कर स्वयं रसोई आदि नहीं बनाता, तथा श्रावकके ग्यारहवें स्थानमें सम्यग्दर्शन के साथ स्थित है अर्थात् सम्यग्दर्शन-पूर्वक श्रावकके ग्यारह स्थानोंका पालन करता है, वह स्वर्गके सुखको साधता है अर्थात् सोलह स्वर्गों में से किसी एक स्वर्गमें उत्पन्न होता है और वहाँ से च्युत हो निम्रन्थ होकर मोक्षको प्राप्त होता है ।। १४ ।। गाथार्थ-जो आत्मा को नहीं इच्छता अर्थात् आत्मा को भावना नहीं करता है, वह भले ही समस्त धर्म कार्योंको करता हो तो भी मुक्ति को प्राप्त नहीं होता । वह संसारी हो कहा गया है ।। १५ ।। विशेषार्थ-'इच्छाकार' शब्द का प्रधान अर्थ आत्मा की इच्छा करना है अर्थात् पर पदार्थसे भिन्न शुद्ध आत्म-तत्त्वकी उपलब्धि मुझे हो ऐसी भावना करना है। जो पुरुष उक्त प्रकारसे आत्माको इच्छा नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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