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दर्शनप्राभृतम् मिथ्यादृष्टितिव्य इत्यर्थः। कोऽपवादवेषः ? कलौ किल म्लेच्छादयो नग्न दृष्ट्वोपद्रवं यतीनां कुर्वन्ति तेन मण्डपदुर्गे श्री वसन्तकीर्तिना स्वामिना चर्यादिवेलायां तट्टीसादरादिकेन शरीरमाच्छाद्य चर्यादिकं कृत्वा पुन स्तन्मुञ्चन्तीत्युपदेशः कृतः संयमिनामित्यपवादवेषः । तथा नृपादिवर्गोत्पन्नः परमवैराग्यवान् लिङ्गशुद्धिरहितः उत्पन्नमेहनपुट-दोषः लज्जावान् वा शोताद्यसहिष्णुर्वा तथा करोति सोऽप्यपवाद-लिङ्गः प्रोच्यते । उत्सर्गवेषस्तु नग्न एवेति ज्ञातव्यम् । 'सामान्योक्ती विधिरुत्सर्गो विशेषोक्तो विधिरपवादः' इति परिभाषणात् ॥२४॥
अमराण वंदियाणं रूवं दळूण सोलसहियाणं । जे गारवं करंति य सम्मत्तविवज्जिया होंति ॥२५॥ अमराणां वन्दितानां रूपं दृष्ट्वा शीलसहितानाम् ।
ये गर्व कुर्वन्ति च सम्यक्त्वविजिता होति ॥२५।। ( अमराण वंदियाणं ) अमराणां भवनवासिव्यन्तर-ज्योतिष्क-कल्पवासिकल्पातीतदेवानां वन्दितानां तीर्थंकरपरमदेवानां ( एवं दळूण ) रूपं वेषं दृष्ट्वा कि कलिकाल में म्लेच्छ आदि पुरुष नग्न रूप देख कर मुनियों पर उपद्रव करते हैं इसलिये मण्डपदुर्ग में श्री वसन्तकीर्ति स्वामी ने संयमियों को यह उपदेश दिया कि चर्या आदि के समय चटाई आदिके द्वारा शरीरको ढक लें, बाद में चर्या आदि करके उसे छोड़ दें। दूसरा अपवाद वेष यह कि राजा आदि विशिष्ट वर्ग से उत्पन्न हुआ मनुष्य यदि उत्कृष्ट वैराग्य से युक्त होता है परन्तु लिङ्ग-शुद्धि रहित होने अथवा लिङ्गके अग्रभागमें दोष होनेके कारण नग्न होने में लज्जा का अनुभव करता है तो वह वस्त्र धारण कर सकता है अथवा कोई शोत आदिके कष्टको सहन नहीं कर सकता है तो वह वस्त्र धारण करता है। इन अपवाद वेषोंको कुन्दकुन्द स्वामी सर्वथा अस्वीकार्य मानते हैं । उनका अभिप्राय है कि मुनिका वेष सहजोत्पन्न दिगम्बर मुद्रा ही है जिसने हिंसादि पाँच पापोंका नव कोटिसे त्याग किया है वह म्लेच्छादि दुष्ट • पुरुषोंके उपसर्ग से भयभीत होकर किसी प्रकारके आवरणको स्वीकृत
नहीं कर सकता । उपसर्ग आने पर समता भावसे उसे सहन करना हो मुनिका कर्तव्य है। इसी प्रकार जिसे शोत आदि का परिषह सहन नहीं होता तथा जो लिङ्गादि में विकार होने से दीक्षा धारण के योग्य नहीं है वह उत्कृष्ट श्रावक ऐलक क्षुल्लकके पद में रह कर ही संयम धारण करता है। भावनाके अतिरेक से चरणानुयोगकी व्यवस्था को भङ्ग कर
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