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षट्प्राभृते
[१. २४___ (एदे दु वंदणीया ) एते पुरुषा महामुनयो वन्दनीया नमस्कर्तव्याः । एते के ? ( जे गुणवादी गुणघराणं ) ये मुनयः स्वयं सम्यग्दर्शनादीनामाराधका अपरेषां गुणधराणामाराधनाराधकानां । ये मुनयो गुणवादिनो गुणवर्णनशीला न मत्सरिणस्ते वन्दनीया नमस्कारणीया इत्यर्थः ॥२३॥
सहजुप्पण्णं रूवं दह्र जो मण्णए ण मच्छरिओ। सो संजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो ॥२४॥ सहजोत्पन्नं रूपं दृष्ट्वा यो मन्यते न मत्सरिकः।
स संयमप्रतिपन्नो मिथ्यादृष्टिर्भवत्येषः ॥२४॥ ( सहजुप्पण्णं एवं ) सहजोत्पन्नं स्वभावोत्पन्नं रूपं नग्नं रूपं । ( ) दृष्ट्वा विलोक्य । ( जो मण्णए ण ) यः पुमान् न मन्यते नग्नत्वेऽरुचिं करोतिनग्नत्वे किं प्रयोजनं पशवः किं नग्ना न भवन्तीति व्रते । ( मच्छरिओ) परेषां शुभ कर्माणि द्वेषी । ( सो संजम पडिवण्णो) स पुमान् संयम-प्रतिपन्नो दीक्षां प्राप्तोऽपि (मिच्छाइटठी हवइ एसो) मिथ्यादृष्टिर्भवत्येष । अपवादवेषं घरन्नपि
इस गाथा में कुन्दकुन्द स्वामी ने व्यतिरेक रूपसे यह भाव प्रतिफलित किया है कि जो साधु, सम्यग्दर्शनादि चार आराधनाओं में लीन न रहकर इधर उधर की बातोंमें संलग्न रहते हैं तथा ईर्ष्या-वश अन्य गुणो मनुष्योंकी प्रशंसा न करके उल्टी निन्दा करते हैं वे साधु वन्दना करने योग्य नहीं हैं ] ॥२३॥
गाथार्य-जो स्वाभाविक नग्न रूपको देखकर उसे नहीं मानता है, उलटा ईर्ष्याभाव रखता है वह संयम को प्राप्त होकर भी मिथ्यादृष्टि है ॥२४॥
विशेषार्थ-नग्न-दिगम्बर मुद्रा सहजोत्पन्न स्वाभाविक मुद्रा है उसे देखकर जो पुरुष उसका आदर नहीं करता है प्रत्युत नग्न-मुद्रा में अरुचि करता हुआ यह कहता है कि नग्नत्व में क्या रखा है ? क्या पशु नग्न नहीं होते ? साथ ही दूसरोंके शुभ कार्य में द्वेष रखता है, वह दीक्षाको प्राप्त होने पर भी मिथ्यादृष्टि है। ऐसा पुरुष अपवाद वेष को धारण करता हुआ भी मिथ्यादृष्टि है । वास्तव में मुनिमार्ग में कोई भी अपवाद वेष स्वीकार्य नहीं है, परिस्थिति-वश उसे जो धारण करता है वह अपने गृहीतचारित्र से च्युत होने के कारण मिथ्यादृष्टि ही है। वह अपवाद वेष क्या है ? इसका उत्तर देते हुए संस्कृत टीकाकार ने स्पष्ट किया है
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