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-१. २३]
दर्शनप्रामृतम् दसणणाणचरित्ते तवविणय णिच्चकाल' सुपसत्या। एदे दु वंदणीया जे गुणवादी गुणधराणं ॥२३॥
दर्शन ज्ञान चारित्रे तपोविनये नित्यकाल सुप्रस्वस्थाः ।
एते तु वन्दनीया ये गुणवादिनो गुणधराणाम् ॥२३॥ (दसणणाणचरित्ते ) दर्शनज्ञानचारित्रे दर्शनं च ज्ञानं च चारित्रं च दर्शनशानचारित्रं समाहारो द्वन्द्वः तस्मिन् दर्शनज्ञानचारित्रे एतत्रितये तथा (तविणए ) तपो विनये चतुर्विधाराधनायामियेत्यर्थः ( णिच्चकाल सुपसत्था ) नित्यकालसुप्रस्वस्था नित्यमेव प्रकर्षण स्वस्था एकलोलीभावं प्राप्ताः ।
गाथार्य-जो मुनि दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपो विनय में सदा लीन रहते हैं तथा अन्य गुणी मनुष्योंके गुणोंका वर्णन करते हैं वे वन्दनीय है-नमस्कार करने के योग्य हैं ॥२३॥
विशेषार्थ-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपके भेदसे आराधना के चार भेद हैं । जो मुनि इन चारों प्रकार को आराधनाओं में निरन्तर प्रकृष्टता से स्वस्थ रहते हैं अर्थात् मुख्यपने से इन्हीं में एक लोलीभाव *सतृष्णता को प्राप्त रहते हैं अथवा स्थिरता को प्राप्त होते हैं तथा सम्यग्दर्शनादि आराधनाओं को आराधना करने वाले अन्य गुणी मनुष्योंके गुण वर्णन करते हैं उनमें किसी प्रकारका मात्सर्यभाव नहीं रखते हैं, वे वन्दना के योग्य हैं ॥२३॥ ___ [यहाँ संस्कृत टोकाकार ने 'एक लोलीभावं प्राप्ताः' इस पदका प्रयोग किया है जिसका अर्थ "किसी पदार्थमें अत्यन्त उत्सुकताके साथ लीन होना होता है।' इसी शब्दके स्थान पर 'क' प्रति की टिप्पणी में 'एकलौल्याभावं प्राप्ताः' इस पाठ का भी संकेत किया है और उसकी संगति बैठाते हुए लिखा है कि 'एक लौल्यं चपलत्वं तस्य अभावः स एकलौल्याभाव स्तं प्राप्ता इत्यर्थः' इसका अर्थ चपलता का अभाव अर्थात् स्थिरता प्राप्त करने वाले ऐसा होता है। वास्तव में लोल शब्दके कोष में चञ्चल-चपल और सतृष्ण उत्सुक दोनों अर्थ स्वीकृत किये गये हैं।
१. णिच्चकालपसत्या म०। २. कोष्ठकान्तर्गतः पाठः 'क०' पुस्तके नास्ति, म पुस्तके त्वस्ति । ३. एकलोल्याभावं प्राप्ताः कथं तद् दृश्यताम्-एक लोल्यं चपलत्वं तस्य
अभावः स एक लोल्याभावः तं प्राप्ताः। .. ४. 'लोलव सतृष्णयोः' इत्यमरः ।
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