________________
षट्नाभृते
[१. २२
ज्ञानाचारादे रोचनं कर्तव्यम् । ( केवलिजिणेहिं भणियं ) केवलज्ञानिभिजिनणितं . प्रतिपादितम् । केवलज्ञान विना तीर्थकरपरमदेवा धर्मोदेशनं न कुर्वन्ति । अन्यमुनीमामुपदेशस्त्वनुवादरूपो ज्ञातव्यः । अथवा केवलिभिः समवसरण-मण्डितकेवलज्ञानसंयुक्त-तीर्थकर-परमदेवर्भणितं, जिनरनगारकेवलिभिर्भणितं । किं भणितं ? (सदहमाणस्स सम्मत्त) श्रद्दधानस्स पुरुषस्य रोचमानस्य जीवस्य सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनं भवति ॥२२॥
www
तीर्थकर अपनी दिव्यध्वनि द्वारा जो उपदेश करते हैं अन्य मुनि उसीका कथन करते हैं । अथवा मूल गाथा में जो 'केवलिजिणेहिं पद है उसका 'केवलिनश्च ते जिनाश्च' ऐसा कर्म-धारय समास न करके 'केवलिनश्च जिनाश्च' ऐसा द्वन्द्व समास करना चाहिये उससे उक्त पदका यह अर्थ हो सकता है कि केवली अर्थात् समवसरणमें सुशोभित केवलज्ञानसे संयुक्त . तीर्थंकर परमदेव और जिन अर्थात् अनगार केवलियों-सामान्य केवालयों ने कहा है।
(आज कल कितने ही मनुष्य चारित्र पालन करने में अपनी अशक्ति देख चारित्र को ढोंग या पाखण्ड आदि निन्दनीय शब्दों द्वारा व्यवहृत करते देखे जाते हैं तथा चारित्र के धारक जीवों को निन्दा करते हुए पाये जाते हैं उनके प्रति आचार्य कुन्दकुन्द महाराज का उपदेश है कि जितना आचार पालन करने की क्षमता है उसे अपनी शक्ति न छिपा कर पालन करना चाहिये क्योंकि मोक्षमार्ग में अपनी शक्ति को छिपाना आत्मवञ्चना है और जिस चारित्र का पालन करना अशक्य है उसकी श्रद्धा करना चाहिये तथा अपनी शक्तिहीनताका पश्चात्ताप करते हुए यह भावना रखना चाहिये कि हम में वह शक्ति कब प्रगट हो जिससे में भी इस चारित्रको धारण कर सकू। जो मनुष्य इस प्रकार चारित्र के प्रति अपनी श्रद्धा रखता है वह सम्यग्दृष्टि है-सम्यग्दर्शनका धारक है
और उसका वह सम्यग्दर्शन उसे चारित्र को प्राप्ति में पूर्ण सहायता करता है । गाथा का उक्त भाव कविवर द्यानतराय जी ने एक सोरठा में भी व्यक्त किया है।
कीजे शक्ति समान शक्ति विना सरधा धरे।
धानत सरधावान अजर अमर पद भोगवे ॥ अर्थात् शक्ति के समान कार्य करना चाहिये और शक्तिके विना उसकी श्रद्धा करना चाहिये। क्योंकि श्रद्धा रखनेवाला पुरुष भी अजरअमर पदको प्राप्त होता है । ) ॥२२॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org