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________________ मोक्षप्रामृतम् अथ देवेन्द्रयशोगुरुविद्यानन्दीश्वरस्य शिष्येण । मुक्तिप्रियामुखाम्बुजदिदृक्षुणा शिक्षितेन गुणे ॥१॥ श्रुतसागरेण कविना विनापि बुद्धधा विरच्यते रुचिदा। मोक्षप्राभृतविवृतिष्टीकाऽलोकप्रमुक्तेन ॥२॥ याचकजनकल्पतरुः 'स्वरुरपि मिथ्यामताद्रिशङ्ग । भव्यजनजनकतुल्यो विवेकवान् मल्लिभूषणो जयति ॥ ३ ॥ गीतिरार्या णाणमयं अप्पाणं उवलद्धं जेण मडियकम्मेण । . चइउण य परदव्वं णमो गमो तस्स देवस्स ॥१॥ ज्ञानमय आत्मा उपलब्धो येन क्षरितकर्मणा । त्यक्त्वा च परद्रव्यं नमो नमस्तस्मै देवाय ॥ १॥ बय देवेन-तदनन्तर देवेन्द्र-कोति जिनके गुरु हैं, ऐसे विद्यानन्दी महाराज के शिष्य, मुक्ति रूपी वल्लभा के मुख कमल के देखनेके इच्छुक सम्यग्दर्शनादि गुणोंके विषय में अच्छी तरह शिक्षित एवं मिथ्या वचन से रहित श्री श्रुतसागर कविके द्वारा बुद्धि के बिना ही, रुचिको उत्पन्न करने वाली मोक्षप्राभूत को यह टीका रची जाती है। जो याचक जनोंके लिये कल्पवृक्ष रूप हैं, मिथ्यामत रूपी पर्वतों की शिखरों पर वज्र रूप हैं, भव्यजनोंके लिये पिताके समान हैं और परम विवेको हैं वे श्रीमल्लिभूषण गुरु जयवन्त रहें ॥ १-३॥ ___ अब मोक्ष पाहुड ग्रन्थ के प्रारम्भ में मङ्गलाचरणकी इच्छासे श्री कुन्दकुन्द स्वामी देवको नमस्कार करते हैं गाचार्य-जिन्होंने कर्मोका क्षय करके तथा पर-द्रव्यका त्याग करके ज्ञानमय आत्मा को प्राप्त कर लिया है उन श्री सिद्धपरमेष्ठी रूप देवके लिये बारबार नमस्कार हो ॥१॥ १. ह्रादिनी वजमस्त्री स्यात् कुलिशं भिदुरं पविः । शतकोटिः स्वरुः शम्बो दभोलिरशनियोः । २. बस्भावने ॐ नमः सिम्यः इति पाठक। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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