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________________ -५. ६२] भावप्रामृतम् ३८९ इत्यनेन ये सांख्याः कापिलाः सत्कार्यापरनामानो मिथ्यादृष्टयो वदन्ति जीवः खलु मुक्तः न् बाह्यग्राह्यरहितो भवति" तन्मतं निराकृतं भवतीति वेदितव्यं । तथा चोक्तं कपिलो यदि वाञ्छति वित्तिमचिति सुरगुरुगीगु फेष्वेव पतति । चैतन्यं बाह्यग्राह्यरहितमुपयोगि कस्य वद तत्र विदित ॥१॥ (चेयणासहिओ ) चेतनासहितः प्रतिपद्विराजमान इत्यनेन लोकायतमतं निरस्तमिति ज्ञातव्यं । एवं गुणविशिष्टेन जीवेन किं कार्य भवतीति पर्यनुयोगे सतीदं प्राहुः-( सो जीवो णायव्यो ) स जीवः स आत्मा ज्ञातव्यः । (कम्मक्खयकारणणिमित्ते ) कर्मक्षयकारणनिमित्ते कर्मणां ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुनर्नामगोत्रान्तरायाणां समूलकाषं कषणे जीवपदार्थ एव समर्थ इति ज्ञातव्यं । अनन्तसौख्यदानहेतुरात्मेति भावः । स्वरूप ज्ञान है। इस कथन से सत्कार्य इस दूसरे नामको धारण करने वाले मिथ्यादृष्टि सांख्य जो यह कहते हैं कि 'जीव मुक्त होता हुआ बाह्य पदार्थों के ग्रहण से रहित हो जाता है उसका खण्डन हो जाता है। जैसा कि कहा है कपिलो-यदि सांख्य अचेतन प्रकृति में ही ज्ञानको चाहता है अर्थात् ज्ञान पुरुष का धर्म न होकर अचेतन प्रकृति का धर्म है, ऐसा मानता है तो वह चार्वाक के वचन जाल में ही आ पड़ता है अर्थात् जिस प्रकार चार्वाक ज्ञानको अचेतन भूत-चतुष्टय का धर्म मानते हैं उसी प्रकार सांख्य भी ज्ञानको अचेतन प्रकृतिका कार्य मानते हैं, इस तरह सांख्य और चार्वाकोंका कहना एक सदृश होता है। सांख्य चैतन्य को बाह्य ग्राह्य से रहित मानते हैं अर्थात् उसे ज्ञेयाकार परिच्छेद से पराङ मुख स्वीकार करते हैं सो ऐसा चैतन्य किसके लिये उपयोगो है तुम्ही कहो ? प्रश्न-पूनः जीव कैसा है ? - उत्तर-चेतना से सहित है, अर्थात् ज्ञान से शोभायमान है। इस कथन से चार्वाकों के मतका निराकरण होता है। इस प्रकार के गणोंसे विशिष्ट जीवके द्वारा क्या कार्य होता है ? ऐसा प्रश्न उपस्थित होनेपर कहते हैं-वह जीव ज्ञातव्य है-जानने के योग्य है। किस लिये ? कर्मक्षय के लिये। क्योंकि ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय आयु नाम गोत्र और अन्तराय इन आठ कर्मोंका समूल क्षय करने में जीव पदार्थ ही समर्थ है । तात्पर्य यह है कि आत्मा अनन्त सुखको देनेवाला है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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