SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 441
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८८ षट्प्रामृते [५. ६२(जीवो जिणपण्णतो ) जीव वात्मा जिनप्रज्ञप्तः श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागेण प्रणीतः कथितः । जीवो नास्तीति ये चुवाक्कुशिष्या वदन्ति तन्मतमनेन पदेन निरस्तं भवतीति ज्ञातव्यं । तथा चोक्तं तदहंजस्तनेहातो रक्षोदृष्टेभवस्मृतेः । भूतानन्वयनाज्जीवः प्रकृतिज्ञः सनातनः ॥ १॥ . कथंभूतः प्रणीतः, ( णाणसहाओ य ) ज्ञानस्वभावो ज्ञानस्वरूपः । तथा • चोक्तं विभावसोरिवोष्णत्वं चरेण्योरिव चापलं । शशाङ्कस्येव शीतत्वं स्वरूपं ज्ञानमात्मनः ॥ १॥ विशेषार्थ-श्रीमान्-भगवान्-अर्हन्त-सर्वज्ञ वीतराग देव ने जोव. पदार्थ का निरूपण किया है इसलिये 'जीव नहीं हैं' ऐसा जो चार्वाक कहते हैं इस पदसे उनके इस मत का निराकरण हो जाता है । ऐसा ही कहा है___तवर्हज-यह ज्ञान स्वभाव जीव सनातन है-अनादि-सिद्ध है। पृथिवी जल अग्नि और वायु इस भूत चतुष्टय से. नवीन उत्पन्न नहीं हुआ है क्योंकि उसी दिन उत्पन्न हुए बालक की स्तन पोने की चेष्टा देखी जाती है यदि जीवको पूर्व भवका संस्कार न होता तो वह एक दिन की अवस्था में ही माता का स्तन न पीता। इसके सिवाय प्रेत पूर्व भव की वार्ता सुनाते देखे जाते हैं और किन्हीं को अपने पूर्व भवोंका स्मरण भी होता देखा जाता है इससे भी सिद्ध होता है कि इस जीव का पूर्वभवों से सम्बन्ध रहता है, सर्वथा नवीन ही उत्पन्न नहीं होता है। जो जिससे उत्पन्न होता है उसका अन्वय-सम्बन्ध उसके साथ अवश्य रहता है परन्तु भूत-चतुष्टय का जीवके साथ कुछ भी अन्वय नहीं देखा जाता, इससे सिद्ध होता है कि जीवकी उत्पत्ति भूतचतुष्टय से नहीं होती। प्रश्न-यह जीव कसा है ? उत्तर-यह जीव ज्ञान स्वभाव वाला है, ऐसा ही कहा हैविभावसो-जिस प्रकार अग्निका स्वरूप उष्णता है, वायुका स्वरूप चपलता है, और चन्द्रमा का स्वरूप शीतलता है उसी प्रकार आत्मा का १. यशस्तिलके सोमदेवस्य । २. प्रमेयरलमालम्यां जीव; इत्यास्य स्थाने सिद्धः पाठः । ३. वरेण्यो म । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy