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-५.६१-६२] भावप्राभृतम्
जो जीवो भावतो जीवसहावं सुभावसंजुत्तो। सो जरमरणविणासं कुणइ फुडं लहइ णिव्वाणं ॥६१॥
यो जीवो भावयन् जीवस्वभावं सुभावसंयुक्तः ।
स जरामरणविनाशं करोति स्फुट लभते निर्वाणम् ।।६१॥ ( जो जीवो भावंतो ) यो जीव आसन्नभव्यः भावंतो-भावयन् भवति । कं भावयन् भवति ( जीवसहावं ) जीवस्वभावमात्मस्वरूपं अनन्तज्ञानानन्तदर्शनानन्तवीर्यानन्तसुखस्वरूपं केवलं केवलज्ञानमयं वा आत्मानं । कथंभूतः सन् । (सुभावसंजुत्तो) शोभनपरिणामसंयुक्तो रागद्वेषमोहादिविभावपरिणामरहितः । ( सो जरमरणविणासं स कुणइ फुडं ) जीवोऽन्तरात्मा भेदज्ञानबलेन जरामरणविनाशं करोति पुनर्जराजीर्णो न भवति न च कथं ? म्रियते फुड-स्फुटं निश्चयेन तीर्थकरो भवति । ( लहइ णिव्वाणं ) लभते किं निर्वाणं सर्वकर्मक्षयलक्षणं मोक्षं अनन्तसुखं प्राप्नोतीत्यर्थः ।
जीवो जिणपण्णत्तो णाणसहाओ य चेयणासहिओ।
सो जोवो णायव्यो कम्मक्खयकारणणिमित्तो ॥६२॥ - जीवो जिनप्रज्ञप्तः ज्ञानस्वभावश्चेतनासहितः।
स जीवो. ज्ञातव्यः कर्मक्षयकारणनिमित्ते ॥ ६२ ॥
गाथार्थ-जो जीव उत्तम भावों से युक्त होकर आत्मस्वभाव का चिन्तन करता है वह जरा और मरणका नाश करता है तथा स्पष्ट ही निर्वाणको प्राप्त होता है ।। ६१ ॥ : विशेषार्थ-जो प्राणी सुभाव-उत्तम परिणामों से युक्त तथा रागद्वेष मोह आदि विभाव परिणामों से रहित होता हुआ जीवस्वभावका अर्थात् अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीयं और अनन्त सुख स्वरूप अथवा मात्र केवल ज्ञानमय आत्मा का ध्यान करता है वह अन्तरात्मा भेदज्ञान के बल से जरा और मरण का नाश करता है अर्थात् फिर न जरा से जीर्ण होता है और न मरता है किन्तु निश्चय से तीर्थकर होता है और सर्व कर्म क्षय रूप लक्षण से युक्त एवं अनन्तसुख-सम्पन्न मोक्ष
को प्राप्त होता है ।। ६१ ॥ ".. गाथार्थ-जिनेन्द्र भगवान् ने ज्ञान स्वभाव वाले एवं चेतना से सहित "जीवका निरूपण किया है कोका क्षय करनेके लिये वह जीव अवश्य हो
जानने योग्य है ।। ६२ ।। Jain Education International. .
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