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षट्प्राभृते
[५. ६०भेदा ज्ञानस्य । चक्षुर्दर्शनमचक्षुदर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनं चेति चतुर्विधं दर्शनं, इति द्वादशभेद उपयोगो जीवस्य व्यवहारभूतं लक्षणं । ( सेसा मे बाहिरा भावाः) शेषा ज्ञानर्शनद्वयाबहिभूताः पुत्रकलत्रमित्रादयः पदार्था वाह्या भावाः पदार्था भवन्ति । ( सव्वे संजोगलक्खणा ) सर्वे संयोगेन कर्मोदयेन मिलिता इत्यर्थः ।।
भावेह भावसुद्धं अप्पा सुविसुद्धणिम्मलं चेव। .. लहु चउगइ चइऊणं जइ इच्छह सासयं सुक्खं ॥ ६० ॥
भावयत भावशुद्ध आत्मानं सुविशुद्धनिर्मलं चैव। .
लघु चतुर्गतिं त्यक्त्वा यदि इच्छत शाश्वतं सुखम् ।। ६० ।। ( भावेह भावसुद्ध) भावयत यूयं कथं ? यथा भवति भावसुद्ध-भावशुद्धं परिणामस्य निष्कुटिलत्वं मायामिथ्यानिदानशल्यत्रयरहितत्वं यथा भवत्येवं आत्मानमर्हत्सिद्धादिकं च हे भव्याः ! भावयत । 'हजित्था मध्यमस्य' इति सूत्रेण तस्थाने ह। (अप्पा सुविसुद्धनिम्मलं चेव ) आत्मानं सुविशुद्धनिर्मलं चैव । आत्मानं कथंभूतं, सुविशुद्धनिर्मलं सुष्ठु अतिशयेन विशुद्ध कर्ममलकलंकरहितं निर्मल रागद्वेषमोहमलरहितं । (लहु चउगइ चइऊणं ) लघु ,शीघ्र चतुर्गतिं त्यक्त्वा प्रमुच्य । ( जइ इच्छह सासयं सुक्खं ) यदि चेत्, इच्छत यूयं शाश्वतमविनश्वरं सौख्यं परमानन्दलक्षणमिति ।
कुश्रुत और कुअवधि ये तीन मिथ्याज्ञान इस प्रकार ज्ञान के आठ भेद हैं
और चक्षुर्दर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ये दर्शन के चार भेद हैं । दोनों मिलाकर उपयोग के बारह भेद होते हैं। यह बारह प्रकार का उपयोग जोवका व्यवहार नयाश्रित लक्षण है ।।५९॥ । ___ गाथार्थ हे मुनिवर ! यदि तुम चारों गतियों को छोड़कर अविनाशी सुखकी इच्छा करते हो तो शुद्ध भाव-पूर्वक अत्यन्त विशुद्ध और निर्मल आत्मा का ध्यान करो ॥ ६ ॥
विशेषार्थ-हे भव्य ! यदि तू लघु अर्थात् शीघ्र ही चतुर्गति से छूट कर शाश्वत अविनश्वर सुख की इच्छा करता है तो भावोंको शुद्ध बनाकर माया मिथ्या और निदान इन तीनों शल्यों से मुक्त होकर आत्मा का अथवा अर्हन्त सिद्ध आदिका चिन्तन करो। यह अत्यन्त विशुद्ध अर्थात् कर्म मल कलङ्क से रहित तथा रागद्वेष और मोह रूपी मलसे रहित है । 'भावेह' यहाँ पर 'हजित्सा मध्यमस्य, इस सूत्रसे त के स्थानमें 'ह' होगया है ॥ ६ ॥
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