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________________ ३९० षट्प्राभृते [ ५.६३ जॉस जीव सहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तत्थ । ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमतीदा ॥ ६३॥ येषां जीवस्वभावो नास्ति अभावश्च सर्वथा तत्र । ते भवन्ति भिन्नदेहाः सिद्धा वचोगोचरातीताः ||६२ ॥ ॐ ( जेस जीवसहावो ) येषामासन्नभव्यानां जीवस्वभाव आत्मस्वभाव आत्मनोऽस्तित्वमस्ति ( णत्थि अभावो य सव्वहा तत्थ ) नास्त्यभावश्च सर्वथा तंत्र | तत्रात्मनि अभावश्च नास्ति " अस्त्यात्मानादिबद्धः" इति वचनात् । ( ते होंति भिण्णदेहा ) ते पुरुषा भवन्ति भिन्नदेहाः शरीर रहिता: ( सिद्धा वचिगोयरमतीदा ) ते पुरुषाः किं भवन्ति सिद्धाः सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिविद्यते येषां ते सिद्धाः प्रज्ञादित्वादस्त्यर्थे ऽण्प्रत्ययः । कथं भूताः सिद्धाः वचोगोचरातीता वाचां 9 गाथार्थ - जिनके जीवका सद्भाव है, उसका सर्वथा अभाव नहीं हैं, वे ही शरीर से रहित तथा वचन के विषय से अतीत सिद्ध होते हैं ||६३ || विशेषार्थ - जिन निकट भव्य जीवों के आत्मा का अस्तित्व है अर्थात् जो आत्मा का सद्भाव स्वीकार करते हैं तथा उसका सर्वथा अभाव नहीं मानते वे ही शरीर को नष्ट कर अशरीर अवस्थाको प्राप्त होते हैं, सिद्ध कहलाते हैं तथा उनकी महिमा वचनके अगोचर होती है । 'अस्त्यात्मानादि-बद्धः' आदि वचनों से आत्मा का अस्तित्व आगम से सिद्ध है । "सिद्धिः स्वात्मोपलब्धि:' आदि वचनसे सिद्धिका अर्थ स्वात्मस्वरूपकी प्राप्ति है। वह सिद्धि जिनके है वे सिद्ध कहलाते हैं । सिद्धि शब्दसे अस्ति अर्थ में प्रज्ञादिगणी होनेसे अण् प्रत्यय होकर सिद्ध शब्द निष्पन्न होता है [ अथवा सिघु, धातु से क्त प्रत्यय होनेपर सिद्ध शब्द निष्पन्न होता है । ] सिद्ध भगवान् वचनोंके गोचर नहीं हैं अर्थात् उनकी १. नाभावः सिद्धिरिष्टा न निजगुणहतिस्तत्तपोभिनं युक्ते, - रस्त्यात्मानादिबद्धः स्वकृतज—फलभुक् तत्क्षयान्मोक्षभागी । ज्ञाता दृष्टा स्वदेह प्रमितिरुपसमाहारविस्तारधर्मा । प्रोव्योत्पत्तिव्ययात्मा स्वगुणयुत - इतो नान्यथा साध्यसिद्धिः सि० भ० । अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विर्वाजितः स्पर्शगन्धरवर्णैः। गुण-समवेतः समाहितः समुदयव्यधीव्यैः ॥ पु० सि० । २. सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः प्रगुणगुणगणोच्छादिदोषापहारात् । योग्योपादानयुक्त्या वृषद इह यथा हेमभावोपलब्धिः ॥ सि० भ० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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