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________________ -५. ११४ ] भावप्राभृतम् ४९५ तादिस्थितिकारणत्वे हेयः । कालस्तु स्वर्गमोक्षादौ वर्तनाप्रत्ययत्वादुपादेयः, नरकादिपर्यायवर्तनाकारणत्वाद्धयः । आकाशः समवसरणस्वर्गमोक्षादाववकाशदायकगुणत्वादुपादेयः । नरकनिगोदादिस्थानावकाशवानदायकत्वाद्धयः । निनिदानविशिष्टतीथंकरनामकर्मास्रव उपादेयो मोक्षहेतुत्वात् । नरकादिगर्तादिनिपातहेतुत्वादन्य आस्रवो हेयः । तीर्थकरनामकर्महेतुश्चतुर्विधोऽपि बन्ध उपादेयः, संसारपर्यटनकारीतरो बन्धो हेयः । संवर उपादेयः । निर्जरा चोपादेया मुनीनां सम्बन्धिनी । मोक्षः सर्वथाप्युपादेयोऽनन्तज्ञानादिचतुष्टयकारणत्वादिति सप्ततत्वानि यावन्न भावयति । ( जाव ण चितेइ चितणीयाई) यावन्न चिन्तयति चिन्तनीयानि धर्म्यशुक्लघ्यानानि अनुप्रेक्षादीनि च । ( ताव ण पावइ जीवो) तावन्न प्राप्नोति जीव आत्मा । (जरणमरणविवज्जियं ठाणं) जरामरणविजितं स्थानं परमनिर्वाणपदमिति शेषः । पावं 'पयइ असेसं पुण्णमसेसं च पयइ परिणामो। परिणामादो बंधो मुक्खो जिणसासणे दिट्ठो ॥११४॥ पापं पचति अशेषं पुण्यमशेषं च पचति परिणामः । परिणामाबन्धः मोक्षो जिनशासने दिष्टः ॥११४॥ पर्यायों की वर्तनाका कारण होनेसे हेय है । आकाश द्रव्य समवसरण स्वर्ग तथा मोक्ष आदि में अवकाश देनेवाले गुण से युक्त होनेके कारण उपादेय है और नरक निगोदादि स्थानों में अवकाश दान देनेके कारण हेयं है । मोक्षका कारण होनेसे निदान रहित तीर्थकर प्रकृति नामक सातिशय पुण्य प्रकृति का आस्रव उपादेय है और नरंकादि गर्त में पतन का कारण होनेसे अन्य आस्रव हेय है। तीर्थंकर नाम कर्म का हेतु होनेसे चारों प्रकार का बन्ध उपादेय है तथा संसार परिभ्रमण का कारण होनेसे अन्य बन्ध हेय है। संवर उपादेय है। मुनियों की. निर्जरा भी उपादेय है, और अनन्त ज्ञानदर्शन आदि चतुष्टयका कारण होनेसे मोक्ष सभी प्रकार से उपादेय है।] . इस तरह से जब तक यह जीव सात तत्वों की भावना नहीं करता है तथा धर्म्य ध्यान, शुक्ल ध्यान और अनित्य आदि अनुप्रेक्षा का चिन्तवन नहीं करता है तब तक जरा और मरण से रहित स्थानको अर्थात् परम निर्वाण पदको नहीं प्राप्त होता है ॥११३॥ __गाथार्थ भाव हो समस्त पाप को पचाता है अर्थात् निर्जीर्ण १२. ५० जयचन्द्रेण स्वकृत-वचनिकायां 'पयइ' स्थाने 'हवा' पाठः स्वीकृतः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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