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________________ ४१६ पट्झामृते [५. ११४(पावं पयह असेसं ) पापं पचति अशेष, सर्व पापं परिणामः पचति निबरपति निजात्मपरिणामो भावना निःशेषः पापं दूरीकरोति । उक्त प नाममात्रकथया परात्मनो भरिजन्मकृतपापसंक्षयः । बोधवृत्तरुचयस्तु तद्गताः कुर्वते हि जगतां पति नरम् ॥ १॥ (पुण्णमसेसं च पयइ परिणामो) पुण्यं अशेषं सर्वं च सर्वमपि पचति विस्तारयति मेलयति, कोऽसौ ? परिणामः निजशुद्धबुद्ध कस्वभावात्मभावना जिनसम्यक्त्वं च । तथा चोक्तं एकापि समर्थेयं जिनभक्तिर्दुर्गति निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितु दातु मुक्तिश्रियं कृतिनः ॥१॥ करता है, भाव ही समस्त पुण्य को पचाता है अर्थात् विस्तीर्ण करता है, जिन--शासनमें भावसे ही बन्ध और भाव से ही मोक्ष कहा गया है ।।११४॥ विशेषार्थ-परिणाम का अर्थ भाव है और भावसे निज शुद्ध बुद्धकस्वभाव आत्मा की भावना अथवा जिन-सम्यक्त्व का ग्रहण होता है। निज शुद्ध-बुद्धक-स्वभाव की भावना से सम्यग्दर्शन का बोध होता है भावकी मुख्यतासे कथन करते हुए आचार्य कहते हैं कि भाव ही समस्त पापको पचाता है अर्थात् निजात्म परिणाम रूप भावना ही समस्त पापको. दूर करती है । जैसा कि कहा गया है नाममात्र-परमात्माके नाम मात्र की कथा से अनेक जन्मों में किये हुए पाप का क्षय हो जाता है फिर परमात्मा-सम्बन्धी ज्ञान चारित्र और श्रद्धा हो तो वे इस मनुष्यको जगत् का नाथ बना देती हैं अर्थात् यह जीव सिद्ध पदको प्राप्त हो जाता है। परिणाम अर्थात् भाव ही इस जोवके समस्त पुण्यको पचाता है अर्थात् 'विस्तृत करता है अथवा पुण्य की प्राप्ति करता है। जैसा कि कहा गया है एकापि-यह एक जिन-भक्ति ही दुर्गति का निवारण करने के लिये १. संस्कृत टीकाकार ने 'पचति का अर्थ' विस्तृत करता है, किया अवश्य है परन्तु पचि विस्तारे धातुका रूप पञ्चयति होता है, पचति नहीं। अतः जो अर्थ 'पापं पचति अशेष' में लगाया है वही यहाँ भी लगाना चाहिये। अर्थात् पुण्य कर्मकी निरा भी परिणाम से ही होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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