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________________ ४९४ षट्प्राभृते [ ५.११३ जीवाः शुद्धबुद्ध कस्वभावा निजात्मा च । अजीवतत्व पुद्गलो धर्मोऽधर्मः काल आकाशश्च । तत्रष्टस्रग्वनितादिरूपः पुद्गलपर्यायो मोहोत्पादको राग़जनकः, शस्त्रविषकण्टकशत्रुप्रभृतिद्वेषकारकपुद्गलपर्यायः । सोऽप्यास्त्रवनिमित्तः कर्मबन्धकारणं, शुद्धआहारादिगृहीतः शुद्धध्यानाध्ययनकारणत्वात् संवर निर्जराकारणत्वात् सोऽपि मोक्षप्रत्ययः, अशुद्ध आहारो गृहीतः चर्मादिस्पृष्टतया दुर्ष्यानोत्पादकत्वादास्रवबन्धकारणं । इत्यादि पुद्गलस्य हेयोपादेययुक्तितया विचारो ज्ञातव्यः । अथवा पुद्गलद्रव्यमेव जीवस्य बन्धकारणत्वादुःखकारणं परमार्थतया हेय एव । धर्मस्तु नरकादिगति सहायकारकत्वाद्धेयः स्वर्गमोक्षगतिकारकत्वादुपादेयः । अधर्मस्तु स्वर्गमोक्षस्थानादौ मुनीनां ध्यानाध्ययनादिकाले स्थितिहेतुत्वादुपादेयः । नरकनिको विशेषार्थ - तत्व सात हैं- १ जीव, २ अजीव, ३ आस्रव, ४ बन्ध, ५ संवर, ६ निर्जरा और ७ मोक्ष । इन सात तत्वोंमें निज आत्म-तत्व मोक्ष का कारण है क्योंकि वही आदान कारण होनेसे मोक्ष पर्याय रूप परिणमन करता है । निमित्त कारण की अपेक्षा शुद्ध बुद्धेक स्वभाव से युक्त अन्य जीव तथा अपनी पूर्व पर्याय गत आत्मा भी मोक्षका कारण है। अजीव तत्वके पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये पाँच भेद हैं। इनमें इष्ट माला तथा स्त्री आदि रूप पुद्गल पर्याय मोहको उत्पन्न करने वाली तथा राग की जनक है और शस्त्र विष कण्टक तथा शत्रु आदि रूप पुद्गल पर्याय द्वेष - जनक है। वह पुद्गल द्रव्य आस्रव का निमित्त तथा कर्म-बन्धका कारण है । यदि शुद्ध आहार आदि रूप पुद्गल द्रव्य ग्रहण में आता है तो वह शुद्ध ध्यान तथा अध्ययन का कारण होनेसे संवर और निर्जरा का कारण होता है तथा परम्परा से मोक्ष का भी कारण होता है । यदि चमड़े आदि के स्पर्श से दूषित अशुद्ध आहार रूप पुद्गल द्रव्य ग्रहण में आता है तो वह खोटे ध्यानका उत्पादक होनेसे आस्रव और बन्ध काही कारण होता है । इत्यादि रूप से पुद्गल द्रव्य की हेयता और उपादेयताका विचार करना चाहिये । अथवा परमार्थसे पुद्गल द्रव्य ही बन्ध का कारण होनेसे जीवके दुःखका कारण है, अतः वह हेय ही है ] धर्म द्रव्य नरकादि गतियों की प्राप्ति में सहायता करता है इसलिये हेय है और स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति में सहायक होनेसे उपादेय है । अधर्म द्रव्य स्वर्ग तथा मोक्ष सम्बन्धी स्थितिका तथा ध्यान अध्ययन आदिके काल में मुनियों की स्थिति का हेतु होनेसे उपादेय है तथा नरक और नकोत आदि की स्थिति का कारण होनेसे हेय है। काल द्रव्य स्वर्ग और मोक्ष आदि में होनेवाली वर्तनाका कारण होनेसे उपादेय है और नरकादि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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