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________________ -५. ११३] भावप्राभृतम् ( तदियं ) तृतीयं तत्वं आस्रवनामधेयं । ( चउत्थपंचमयं ) चतुर्थ बन्धनामधेयं, पंचमकं तत्वं संवराभिधानं निर्जरा षष्ठं तत्वं, मोक्षः सप्तमं तत्वं । ( तिरयणसुद्धो अप्पं ) त्रिकरणशुद्धः सन्नात्मानं भावहि भावय, अल्पं वा स्तोककालं अन्तर्मुहूर्तकालं । कथंभूतमात्मानं, (अणाइणिहणं ) अनादिनिधनं आद्यन्तरहितं । ( तिवगहरं ) धर्मार्थकामवर्गत्रयजितं सर्वकर्मक्षयलक्षणमोक्षसहितं निश्चयात् । जाव ण भावइ तच्चं जाव ण चितेइ चितणीयाई । ताव ण पावइ जीवो जरमरणविवज्जियं ठाणं ॥११३॥ .. यावन्न भावयति तत्वं यावन्न चितयति चिंतनीयानि । तावन्न प्राप्नोति जीवः जरमरणविवजितं स्थानं ॥११॥ (जाव ण भावइ तच्चं) यावत्कालं न भावयति, किं ? तत्वं सप्तसंख्यं जीवाजीवासवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षलक्षणं, तन्मध्ये निजात्मतत्वं मोक्षकारणं अपरे . विशेषार्थ यहाँ आचार्य ने गाथाके पूर्वार्धमें सम्यग्दृष्टि जीवकी बहिर्मुखी प्रवृत्ति का वर्णन करते हुए कहा है कि तू जीव अजीव आदि सात तत्वोंकी भावना कर और अन्तर्मुखी प्रवृत्ति का वर्णन करते हुए उत्तरार्ध में कहा है कि तू मन वचन कायसे शुद्ध होकर अर्थात् तीनों योगों के निमित्तसे होनेवाली बहिर्मुखी प्रवृत्ति से निवृत्त होकर अनादि निधन एक आत्मा की भावना कर । तेरी यह आत्मा धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग से रहित होकर अपवर्ग रूप है-मोक्ष रूप है। • जिसमें चेतना पाई जाती है वह जीव है। चेतना से रहित अजीव तत्व है । इसके पुद्गल धर्म अधर्म आकाश और काल ये पाँच भेद हैं। इन पांच भेदों में धर्म अधर्म आकाश और कालसे इस जीवका कछ अद्वित नहीं होता परन्तु पुद्गल द्रव्यके भेद कर्म-वर्गणा और नो कर्म वर्गणाके संयोगसे इस जीवकी संसार दशा बन रही है। आत्मा और कर्म का संयोग जिन भावों से होता है वह आस्रव है। आत्मा और कर्म-प्रदेशों का क्षीर नीर के समान एक क्षेत्रावगाह होना बन्ध है। नवीन आस्रव का रुक जाना संवर है। सत्ता में स्थित कर्मोंका एकदेश क्षय होना निर्जरा है और समस्त कर्म परमाणुओंका सदा के लिये आत्म-प्रदेशों से सम्बन्ध छुट जाना मोक्ष है ।।११२॥ गाथार्थ-जब तक यह जीव न तत्व की भावना करता है और न चिन्तनीय पदार्थों का चिन्तवन करता है तब तक जरा और मरण से रहित परम निर्वाण पद को नहीं प्राप्त होता है ॥११३॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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