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________________ २३८ षट्प्राभूते स महाभ्युदयं प्राप्य जिनो भूत्वाऽऽप्तसत्क्रियः । देवविरचितं दीप्रमास्कन्दत्युपधानकं ।। १५ ॥ ॥ १८ ॥ त्यक्तशीतातपत्राणसकलात्मपरिच्छदः 1 त्रिभिश्छत्रः समुद्भासिरत्नैरुद्भासते स्वयं ।। १६ ।। विविधव्यजनत्यागादनुष्ठिततपोविधिः 1 चामराणां चतुःषष्ट्या वीज्यते जिनपर्यये ॥ १७ ॥ उज्झितानकसंगीतघोषः कृत्वा तपोविधं । स्याद्युदुन्दुभिनिर्घोषैषु ष्यमाणजयोदयः उद्यानादिकृतां छायामपास्य स्वां तपो व्यघात् । यतोऽयमत एवास्य स्यादशोकमहाद्रुमः ॥ १९ ॥ स्वं स्वापतेयमुचिनं त्यक्त्वा निर्ममतामितः । स्वयं निषिभिरभ्येत्य सेव्यते द्वारि दूरतः ॥ २० ॥ गृहशोभां कृतारक्षां दूरीकृत्य तपस्यतः । श्रीमण्डपादिशोभास्य स्वतोऽभ्येति पुरोगतां ॥ २१ ॥ Jain Education International कर परिग्रहरहित हो जाता है और केवल अपनी भुजा पर सिरका किनारा रखकर पृथिवी के ऊँचे नीचे प्रदेश पर शयन करता है वह महा - अभ्युद को पाकर जिन होजाता है । उस समय सब लोग उसका आदर-सत्कार करते हैं और वह देवोंके द्वारा बने हुए देदीप्यमान तकिया को प्राप्त होता है ।। १४-१५।। जो मुनि शीतल छत्र आदि अपने समस्त परिग्रह का त्याग कर देता है वह स्वयं देदीप्यमान रत्नोंसे युक्त तीन छत्रोंसे सुशोभित होता है || १६ || अनेक प्रकारके पङ्खाओंके त्यागसे जिसने तपश्चरण की विधिका पालन किया है ऐसा मुनि जिनेन्द्र पर्याय में चौंसठ चमरोंसे वीजित होता है अर्थात् उस पर चौंसठ चमर ढुलाये जाते हैं ||१७|| जो मुनि नगाड़े तथा संगीत आदि की घोषणा का त्यागकर तपश्चरण करता है उसके विजयका उदय स्वर्ग के दुन्दुभियों के गंभीर शब्दोंसे घोषित किया जाता है ||१८|| चूँकि पहले उसने अपने उद्यान आदिके द्वारा की हुई छाया का परित्याग कर तपश्चरण किया था इसलिये ही अब उसे ( अरहन्त अवस्था में ) महा अशोक वृक्ष की प्राप्ति होती है ॥१९॥ जो अपना योग्य धन छोड़कर निर्ममत्वभाव को प्राप्त होता है वह स्वयं आकर दूर दरवाजे पर खड़ी हुई निधियोंसे सेवित होता है अर्थात् समवसरण भूमि में निधियाँ दरवाजे पर खड़े रहकर उसकी सेवा करती हैं ॥२०॥ जिसकी रक्षा. सब ओरसे की गई थी ऐसी घरकी शोभाको छोड़ [X43 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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