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बोधप्रामृतम् तपोऽविगाहनादस्य गहनान्यधितिष्ठतः । त्रिजगज्जनतास्थानसहं स्यादवगाहनं ॥ २२ ॥ क्षेत्रवास्तुसमुत्सर्गात्क्षेत्रज्ञत्वमुपेयुषः । स्वाधीनं त्रिजगत्क्षेत्रमेश्यमस्योपजायते ॥ २३ ॥ आज्ञाभिमानमुत्सृज्य मौनमास्थितवानयं । प्राप्नोति परमामाज्ञां सुरासुरशिरोधृतां ॥ २४ ॥ स्वामिष्टभृत्यबन्ध्वादिसभामुत्सृष्टवानयं । परमात्मपदप्राप्तावघ्यास्ते त्रिजगत्सभां ॥ २५ ॥ स्वगुणोत्कीर्तनं त्यक्त्वा त्यक्तकामो महातपाः। स्तुतिनिन्दासमो भूपः कीर्त्यते भुवनेश्वरैः ॥ २६ ॥ वन्दित्वा वन्द्य महन्तं यतोऽनुष्ठितवांस्तपः । ततोऽयं वन्द्यते वन्द्यैरनिन्द्यगुणसन्निधिः ॥ २७ ॥
कर इसने तपश्चरण किया इसीलिये श्रीमण्डप की शोभा अपने आप इसके सामने आती है ॥२१॥ जो तप करनेके लिये सघन वनमें निवास करता है उसे तीनों जगत् के जीवोंके लिये स्थान दे सकनेवाली अवगाहन शक्ति प्राप्त होजाती है अर्थात् उसका ऐसा समवसरण रचा जाता है जिसमें तीनों लोकोंके जीव सुखसे स्थान पा सकते हैं ॥२२॥ जो क्षेत्र मकान आदिका परित्याग करके शुद्ध आत्माको प्राप्त होता है उसे तीनों जगत्के क्षेत्रको अपने अधीन रखने वाला ऐश्वर्य प्राप्त होता है ।।२३।। जो मुनि आज्ञा देनेका अभिमान छोड़कर मौन धारणा करता है उसे सुर और असुरोंके द्वारा शिर पर धारण की हुई उत्कृष्ट आज्ञा प्राप्त होती है अर्थात् उसकी आज्ञा सब जीव मानते हैं ॥२४॥ चूंकि इस मुनिने अपने इष्ट सेवक तथा भाई आदिको सभाका त्याग किया था इसलिये उत्कृष्ट अरहन्त पदकी प्राप्ति होनेपर वह तीनों लोकों की सभा अर्थात् समवसरण भूमिमें विराजमान होता है ॥२५।। जो सब प्रकार की इच्छाओं का परित्याग कर अपने गुणोंकी प्रशंसा करना छोड़ देता है और महातपश्चरण करता हुआ स्तुति तथा निन्दा में समान भाव रखता है वह तीनों लोकोंके इन्द्रोंके द्वारा प्रशंसित होता है अर्थात् सब लोग उसकी स्तुति करते हैं ॥२६॥ चूंकि इस मुनिने वन्दना करने योग्य अरहन्त देवकी वन्दनाकर तपश्चरण किया था इसीलिये यह वन्दना करने के योग्य पूज्य पुरुषों के द्वारा वन्दना किया जाता है तथा प्रशंसनीय उत्तम गुणोंका भण्डार हुआ है ॥२७॥
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