SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 497
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ।५.८५ षट्प्राभृते [५.८७तस्मिन्नेव समुद्रे तस्यैव महामत्यस्य कर्णबिलमलाशनशीलः शालिसिक्थप्रमाणशरीरो मत्स्यो बभूव । तदन्वेष पर्याप्तद्रव्यभावेन्द्रियः तस्य महामत्स्य--मुखं ज्यादाय निद्रायतो वेलानदीप्रवाहे इव गलगुहेऽनेकजलचरसमूहं प्रविश्य निष्क्रामन्तं निरीक्ष्य शालिसिक्थश्चिन्तयति-अयं पापकर्मा महामत्स्यो निर्भाग्यो यन्मुखे पतन्त्यपि यादांसि भक्षयितुं न शक्नोति । मम देवेनंतावच्छरीरं यदि भवति तदा सकलमपि समुद्र सत्वसंचाररहितं करोमीति चेतश्चिन्ताबलात्क्षुद्रमत्स्यो निखिलनकंचक्रभक्षणपापाच्च महामत्स्योऽपि द्वावपि मृत्वा सप्तमनरके संजातौ । ततस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायुषौ तौ द्वावपि परस्परमालापं चक्रतुः । अहो क्षुद्रमत्स्य ! महापापकर्मणो ममात्रागमनं संगच्छत एव । त्वं तु मत्कर्णमलजीवनः कथमत्रागतः । शालिसिक्थचरनारकः प्राह-महामत्स्यचेष्टितादपि दुरन्तदुःखं संबन्धनादुर्भावनावशात् । इति श्रीभावप्राभृते शालिसिक्थमत्स्योपाख्यानं समाप्तं । बाहिरसंगच्चाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो। सयलो णाणज्झयणो णिरत्थओ भावरहियाणं ॥८७॥ बाह्यसङ्गत्यागः गिरिसरिदरिकन्दराद्यावासः। सकलं ज्ञानाध्ययनं निरर्थकं भावरहितानाम् ॥८॥ महामत्स्य के वेला नदीके प्रवाहके समान कण्ठ रूप गुहा में प्रवेश कर निकलते हुए अनेक जलचरों के समूह को देखकर चिन्ता करता है कि यह पापी महामत्स्य बड़ा अभागा है जो मुखमें पड़े हुए भी जल जन्तुओं को खाने में समर्थ नहीं है, भाग्यवश यदि मेरा शरीर इतना भारी होता तो में समस्त समद्र को जीवोंके संचार से रहित कर देता। इस प्रकार मानसिक विचार के बलसे क्षुद्रमत्स्य और समस्त मगरमच्छों के खानेसे उत्पन्न पापके कारण महामत्स्य दोनों ही मरकर सातवें नरक में उत्पन्न हुए । वहाँ तेतोस सागरको उनको आयु हुई। दोनों मिलने पर परस्पर वार्तालाप करने लगे। महामच्छके जीवने कहा कि अहो क्षुद्रमत्स्य ! महापाप करने वाले मेरा यहाँ आना तो संगत है पर तुम तो कानका मल खाकर जीवित रहते थे तुम यहाँ कैसे आ गये ? शालिसिक्थ के जीव नारकी ने कहा कि मैं महामत्स्य को चेष्टा से भी अधिक भयंकर दुःख देनेवाली खोटी भावनाके वशसे यहाँ उत्पन्न हुआ है। - इस प्रकार श्री भावप्राभृत में शालिसिक्थ मत्स्य की कथा समाप्त हुई ॥८६॥ गावार्थ-बाह्य परिग्रह का त्याग करना, पर्वत नदी गुफा और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy