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________________ षट्नामृते पव्वज्जहोणगहिणं णेहं सोसम्मि वदे बहुसो। . आयारविणयहीणो तिरिक्खजोणी ग सो सवणो ॥१८॥ __ प्रव्रज्याहीनगृहिणि स्नेहं शिष्ये वर्तते बहुशः।। आचारविनयहीनः तिर्यग्योनिः न स श्रमणः ॥१८॥ एवं सहिओ मुणिवर संजदमझम्मि वट्टदे णिच्चं । बहुलं पि जाणमाणो भावविणो ण सो सवणो ॥१९॥ . एवं सहितः मुनिवर संयतमध्ये वर्तते नित्यं । . . बहुलमपि जानानः भावविनष्टो न स श्रमणः ॥१९॥ दंसणणाणचरिते महिलावग्गम्मि देदि वोपट्टो। पासत्थ वि हु णियट्ठो भावविणट्ठो ण सो समणो ॥२०॥ दर्शनज्ञानचारित्राणि महिलावर्गे ददाति विश्वस्तः। पार्श्वस्थादपि हु निकृष्टः भावविनष्टः न स श्रमणः ॥२०॥ .. पव्वज्ज-जो दीक्षासे रहित गृहस्थ शिष्य पर अधिक स्नेह रखता है तथा आचार और विनय से रहित है वह तिर्यञ्च है साधु नहीं है। __ भावार्थ-कोई कोई साधु अपने गृहस्थ शिष्य पर अधिक स्नेह रखते हैं अपने पद का ध्यान न कर उसके घर आते जाते हैं सुख दुःख में आत्मीयता दिखाते हैं तथा स्वयं मनि के योग्य आचार तथा पूज्य पुरुषों की विनय से रहित होते हैं । आचार्य कहते हैं कि वे मुनि नहीं हैं किन्तु पशु हैं ॥१८॥ एवं सहिओ-हे मुनिवर ! ऐसी खोटी प्रवृत्तियों से सहित मुनि, यद्यपि संयमो जनों के मध्यमें रहता है और बहुत ज्ञानवान् भी हो तो भो वह भाव से नष्ट है अर्थात् भावलिङ्ग से रहित है 'यथार्थ मुनि नहीं है।' भावार्थ-कार जिन खोटो प्रवत्तियों का वर्णन किया है उनसे जो सहित है, निरन्तर संयमी जनों के बीच में रहता है और अनेक शास्त्रों का ज्ञाता भी है वह भावसे शून्य मात्र द्रव्यलिङ्गो साधु है परमार्थ साधु नहीं है ॥१९॥ दसण णाण-जो स्त्रियों में विश्वास उपजा कर उन्हें दर्शन, ज्ञान १. देहि म०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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