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________________ ७०४ षट्प्राभृते [८. २७-२८आदेहि कम्मगंठी जावद्धा विसयरायमोहि। तं छिदंति कयत्या तवसंजमसीलयगुणेण ॥२७॥ आत्मनि हि कर्मग्रथिः यावद्धा विषयरागमोहाभ्यां । तां छिन्दन्ति कृतार्थाः तपः संयमशीलगुणेन ॥२७|| उदधी व रदणभरिदो तवविणयंसीलदाणरयणाणं । सोहे तोय ससीलो णिव्वाणमणुत्तर पत्तो ॥२८॥ उदधिरिव रत्नभृतः तपोविनयशीलदानरत्नानां । शोभेत सशीलः निर्वाणमनन्तरं प्राप्तः ॥२८॥ रहा है तब तक शरीर के साथ इसे भी भ्रमण करना पड़ता है इसलिये मिथ्या मतके चक्र में पड़कर अपनी विषय लोलुपता को बढ़ाना श्रेयस्कर नहीं है ॥२६॥ आदेहि-विषय सम्बन्धी राग और मोहके द्वारा आत्मामें जो कर्मों. की गांठ बांधी गई है उसे कृतकृत्य-ज्ञानी मनुष्य तप संयम और शील रूप गुणके द्वारा छेदते हैं। भावार्थ-जीवके रागादि भावोंका निमित्त पाकर कर्मोका सम्बन्ध होता है सो ज्ञानी मनुष्य उन भावोंको समझ उसके विपरीत तप संयम तथा शील आदि गुणोंको धारण कर उस बन्ध को रोकते हैं तथा सत्ता में स्थित कर्म परमाणुओं को निर्जरा कर आत्मा और कर्म को जुदा जुदा करते हैं ॥२७॥ ___ उदघी व-जिस प्रकार समुद्र रत्नों से भरा होता है तो भी तोय अर्थात् जल से ही शोभा देता है उसी प्रकार यह जीव भी तप विनय शील दान आदि रत्नों से युक्त है तो भी शील से सहित होता हो सर्वोत्कृष्ट निर्वाण पदको प्राप्त होता है। __ भावार्थ-तप विनय दान आदिसे युक्त होनेपर भी यदि मोह और क्षोभसे रहित समता परिणाम रूपी शील प्रकट नहीं होता है तो मोक्ष की प्राप्ति नहीं होतो इसलिये शोलको प्राप्त करना चाहिये ॥२८॥ होय सेवे हैं, ऐसा ही उपदेश अन्यकू दे करि विषयनि में लगावे हैं ते आप तो अरहट की घड़ी ज्यों संसार में भ्रमैं ही हैं वहाँ अनेक प्रकार दुःख भोगवे हैं परन्तु अन्य पुरुष भी तहाँ लगाय भ्रमाव हैं तातें यह विषय सेवना दुःख ही के आर्थि है दुःखका ही कारण है, ऐसे जानि कुमतीनि का प्रसंग न करना, विषया सक्त पणा छोड़ना यात सुशील पना होंग है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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