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________________ षट्प्राभृते [५.७८ अनलसेन देशकालादिविशुद्धि विधानज्ञेन सबहुमानो यथाशक्ति क्रियमाणो मोक्षार्थं ज्ञानग्रहणाभ्यासस्मरणादि ज्ञानविनयः । तत्वश्रद्धाने निःशंकितत्वादिर्दर्शनविनयः । ज्ञानदर्शनवतो 'दुश्चरचरणे तद्वति च ज्ञानेऽतिभक्तिर्भावतश्चरणानुष्ठानं चरणविनयः । प्रत्यक्षेष्वाचार्यादिष्वभ्युत्थानवन्दनानुगमनादिरात्मानुरूपः परोक्षेष्वपि तेष्वञ्जलिक्रियागुणकीर्तनस्मरणानुज्ञानुष्ठायित्वादिश्च कायवाङ, मनोभिरुपचारविनयः । विनयस्य कि फलं ? ज्ञानलाभः आचारशुद्धिः सम्यगाराधनादिश्च विनयस्य फलं वेदितव्यं । इति चतुर्विधो विनयः । ४१८ प्रश्न - नो प्रकार के प्रायश्चित्त का क्या फल है ? उत्तर - भावोंकी निर्मलता, अनवस्था, अस्थिता और शल्यका अभाव तथा दृढ़ता आदि प्रायश्चित्त का फल जानना चाहिये । विनय तपके चार भेद हैं-१ ज्ञान विनय, २ दर्शन विनय, ३ चारित्र विनय और ४ उपचार विनय । इनका स्वरूप इस प्रकार है देश काल आदि की शुद्धि विधान को जानने वाला मुनि - आलस्य रहित हो मोक्ष की प्राप्तिके लिये बहुत सन्मान के साथ शक्ति अनुसार जो ज्ञानका ग्रहण, अभ्यास तथा स्मरण आदि करता है वह ज्ञान - विनय है । तत्व श्रद्धान में निःशङ्कित आदि गुणों की प्रवृत्ति होना दर्शन - विनय है। ज्ञान और दर्शनसे युक्त मुनिका अतिशय कठिन चारित्र तथा चारित्र युक्त ज्ञान में अतिशय भक्ति होना और भाव-पूर्वक चारित्र का पालन करना चारित्र विनय है । आचार्य आदि के प्रत्यक्ष होनेपर आते समय उठकर खड़े होना, वन्दना करना और जाते समय पीछे चलकर पहुँचा देना तथा उनके परोक्ष में भी हाथ जोड़ना, गुणोंका कीर्तन करना, स्मरण करना और काय वचन तथा मनसे उनकी आज्ञानुसार प्रवृत्ति करना उपचार विनय है । प्रश्न - विनय तपका क्या फल है ? उत्तर—ज्ञान, लाभ, आचार, शुद्धि तथा समीचीनं आराधना आदि की प्राप्ति होना विनय तपका फल है । इसप्रकार चार तरह की विनय का वर्णन हुआ । आगे दश प्रकार की वैयावृत्य का वर्णन करते हैं— A १ आचार्य का वैयावृत्य, २ उपाध्याय का वैयावृत्यं, ३ महोपवास आदिके करने वाले तपस्वी का वैयावृत्य, ४ शास्त्र का अभ्यास करनेवाले १. दुश्चरणे म० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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