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भावप्राभृतम्
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दशविधं वैयावृत्यं । तथा हि । आचार्यस्य वैयावृत्यं, उपाध्यायस्य वैयावृत्यं, महोपवासाद्यनुष्ठायितपस्विनो वैयावृत्यं शास्त्राभ्यासी शैक्ष्यस्तस्य वैयावृत्यं, रुजादिक्लिष्टशरीरो ग्लानस्तस्य वैयावृत्यं स्थविरसन्ततिर्गणस्तस्य वैयावृत्यं दीक्षाका - चार्य शिष्यसंघः कुलं तस्य वैयावृत्यं, ऋषिमुनियत्यनगारनिवहः संघः, अथवा ऋष्यायिका श्रावकश्राविकानिवहः संघस्तस्य वैयावृत्यं चिरप्रव्रजितः साधुस्तस्य वैयावृत्यं, विद्वत्तावक्तृत्वादिलोकसम्म तोऽसंयतसम्यग्दृष्टिर्वा मनोज्ञस्तस्य वैयावृत्यं । कि तद्वैयावृत्यं ? एतेषां दशविधानामाचार्यादीनां व्याधिपरीषहमिथ्यात्वादेः प्रासुकोष भक्तादिप्रतिश्रयसंस्तरादिभिघं मपकरणैः सम्यक्त्वप्रतिस्थापनं च प्रतीकारो वैयावृत्यं बाह्यद्रव्याभावे स्वकाये ( न ) श्लेष्माद्यन्तर्म लापकर्षणादिस्तदानुकूल्यानुष्ठानं च वैयावृत्यं । वैयावृत्यकरणे किं फलं ? समाधानं ( ' समाध्याधानं ) ।
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शैक्ष्यका वैयावृत्य ५ रोग आदि से जिनका शरीर क्लिष्ट हो रहा है ऐसे ग्लान मुनियों का वैयावृत्य, ६ वृद्धमुनियों की सन्तति-रूप गणका वैयावृत्य, ७ दीक्षा देने वाले आचार्य के शिष्य समूह रूप कुल का वैयावृत्य, ८ ऋषि यति मुनि और अनगार इन चार प्रकार के मुनियोंके समूह रूप संघका अथवा मुनि आर्यिका श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघका वैयावृत्य, ९ चिरकाल के दीक्षित साधुका वैयावृत्य और १० विद्वत्ता तथा वक्तृत्व कला आदि के कारण लोकप्रियताको प्राप्त मनोज्ञ साधुका अथवा उक्त गुण - विशिष्ट असंयत सम्यग्दृष्टि का वैयावृत्य करना सो दश प्रकार का वैयावृत्य है । इन आचार्य आदि दश प्रकारके मुनियों को व्याधि, परीषह अथवा मिथ्यात्व आदिका प्रसङ्ग उपस्थित होनेपर प्रांसुक औषध, आहार आदि, रहने के लिये उपाश्रय तथा संस्तर आदि धर्म के उपकरणों से उनकी व्याधि आदिकां प्रतीकार करना और उन्हें सम्यक्त्व में फिरसे स्थित करना वैयावृत्य कहलाता है । बाह्य पदार्थ के न होनेपर अपने हाथ आदि शरीर पर ही उन्हें थुका देना, हाथ से हो कफ आदि भीतरी मलका निकालना आदि तथा उनके अनुकूल चेष्टा करना वैयावृत्य है । वैयावृत्य करनेसे समाधान स्वस्थता रूप फल की प्राप्ति होती है ।
अब पाँच प्रकारके स्वाध्याय का वर्णन करते हैंस्वाध्यायके पहले भेदका नाम वाचना है जिसका अर्थ होता है
१. समाध्याधान विचिकित्साभावप्रवचनवात्सल्याद्यभिव्यक्त्यर्थं तत्वार्थराजवार्तिके
अ० ९ सू० २४ ॥
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