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षट्प्रामृते
[५ ७८वाचना, संशयच्छेदाय निश्चितबलाधानाय वा ग्रन्थार्थोभयस्य परं प्रत्यनुयोगः । आत्मोन्नतिपरातिसन्धानोसहसादिवजितः प्रच्छना । अधिगतार्थस्यकाप्रयेग मनसाभ्यासोऽनुप्रेक्षा। घोषशुद्धं परिवर्तनमाम्नायः । दृष्टादृष्टप्रयोजनानपेक्षमन्मार्गनिवर्तनसन्देहच्छेदापूर्वार्थप्रकाशनाद्यर्थो धर्मकथानुष्ठानं धर्मोपदेशः । पंचविधस्य स्वाध्यायस्य किं फलं ? प्रज्ञातिशयप्रशस्ताध्यवसायप्रवचनस्थितिसंशयोच्छेदपरवादिशंकाद्यभावसंवेगतावृद्धचतिचारविशुद्धघाद्यर्थः पंचविधः स्वाध्यायः ।
नियतकालो यावज्जीवंवाका यस्याममत्वत्यागोऽभ्यन्तरोपधिव्युत्सगे. बाह्यस्त्वनेकप्रायो व्युत्सर्गः । निःसंगत्वनिर्भयत्वजीविताशाव्युदासदोषोच्छेदमोक्षमार्गभावनापरत्वादि व्युत्सर्गफलम् ।
अथ ध्यानं नाम द्वादशं तप उच्यते तदमिदं सूत्रमुमास्वामिभिः कृतं-
. "उत्तमसंहनस्यकाग्रचिन्तानिरोषो ध्यानमान्तमुहूर्तात् ॥" ... निर्देषि ग्रन्थ अर्थ और प्रन्थ अर्थ दोनोंका प्रतिपादन करना । दूसरा भेद प्रच्छना है-संशय को नष्ट करने तथा निश्चित अर्थ को सुदृढ़ करने के लिये दूसरों से ग्रन्थ अर्थ अथवा दोनोंका पूछना सो प्रच्छना नामका स्वाध्याय है। पूछते समय आत्म-प्रशंसा, पर-प्रतारणा अथवा उपहास आदि का अभिप्राय नहीं होना चाहिये। तीसरा भेद अनुप्रेक्षा है-जाने हुए पदार्थ का एकाग्रता पूर्वक मनसे अभ्यास करना सो अनुप्रेक्षा नामका स्वाध्याय है । चौथा भेद आम्नाय है-उच्चारण की शुद्धतापूर्वक श्लोक आदिका पाठ करना आम्नाय है । पांचवां भेद धर्मोपदेश है-दृष्ट अथवा अदृष्ट-प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष प्रयोजनको अपेक्षा न रखकर उन्मार्गको निवृत्ति, सन्देह का छेद तथा अपूर्व अर्थ को प्रकाशित करने आदिके उद्देश्यसे धर्मकथा का करना धर्मोपदेश नामका स्वाध्याय है ।
प्रश्न-पांच प्रकार के स्वाध्याय का क्या फल है ?
उत्तर-बुद्धिका अतिशय, प्रशस्त निश्चय, आगम की स्थिति, संशय का उच्छेद, परवादियों की शङ्का आदिका अभाव संवेगता की वृद्धि तथा अतिचारों की विशद्धि आदि के लिये पांच प्रकार का स्वाध्याय किया जाता है। __ आगे व्युत्सर्ग तप का वर्णन करते हैं
नियत काल अथवा जीवन पर्यन्त के लिये शरीर का त्याग करना अभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग है। बाह्योपधि व्युत्सर्ग के अनेक भेद हैं । निःसअता-निष्परिग्रहता, जीवित रहने की आशा का त्याग, दोषोंका उच्छेद और मोक्षमार्ग को भावना में तत्पर रहना आदि व्युत्सर्ग तपका फल है।
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