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-३. २७]
सूत्रप्राभृतम् प्रक्षालनार्थमल्पमेव जलं गृह्यते किं क्रियतेऽधिकजलग्रहणेन । ( इच्छा जाहु णियत्ता) इच्छा तृष्णा लोभलक्षणा येभ्यो मुनिभ्यो निवृत्ता गता। (ताह णियत्ताई सब्वदुःखाई ) तेषां निवृत्तानि नष्टानि सर्वदुःखानि शारीरमानसागन्तूनि कष्टानि नष्टान्येव' समीपतरसिद्धि-सुखसंभवादिति भावः ॥२७॥
इति श्री पद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य वक्रग्रीवाचार्यलाचार्य गुद्धपिच्छाचार्य नामपञ्चकविराजितेन श्री सीमन्धरस्वामि-ज्ञानसम्बोधित-भव्यजनेन श्री जिनचन्द्रसूरि-भट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षट्नाभृत ग्रन्थे सर्वमुनिमण्डल-मण्डितेन कलिकालगौतस्वामिना श्री मल्लिभूषणेन भट्टारकानुमतेन सकलविद्वज्जनसमाजसम्मानितेनोभयभाषाकविचक्रवर्तिना श्री विद्यानन्दि-गुर्वन्तेवासिना सूरिवर श्री श्रुतसागरेण विरचिता सूत्रप्राभृतटोका समाप्तः । आदि अल्प पदार्थ ही ग्रहण करते हैं, अधिक नहीं। वास्तव में जिनकी लोभ रूप इच्छा नष्ट हो चुकी है उनके शारीरिक, मानसिक और आगन्तुक समस्त दुःख नष्ट ही हो जाते हैं तया मोक्ष सुखकी प्राप्ति अत्यन्त समोप हो जाती है ॥२७॥
इस प्रकार श्री पद्मनन्दी, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रोवाचार्य, एलाचार्य और गृद्धपिच्छाचार्य इन पांच नामोंसे सुशोभित, सीमंधरस्वामीके ज्ञानसे भव्यजीवोंको सम्बोधित करने वाले, श्री जिनचन्द्रसूरि भट्टारकके पट्टके आभरणभूत, कलिकालके सर्वज्ञ कुन्दकुन्दाचार्यके द्वारा विरचित षट्पाहुड ग्रन्यमें समस्त मुनियोंके समूह से सुशोभित कलिकाल के गौतमस्वामी श्री मल्लिभूषण भट्टारक के द्वारा अनुमत, सकल विद्वत्समाज के द्वारा सम्मानित, उभय भाषा सम्बन्धी कवियों के चक्रवर्ती श्री विद्यानन्द गुरुके शिष्य सूरिवर श्री श्रुतसागर के द्वारा विरचित सूत्रप्रामृत को टोका सम्पूर्ण हुई।
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