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________________ ६८१ -६. १०६] मोक्षप्रामृतम् सासर्य सोक्खं ) स जीवः ८ रममुनीश्वरः, प्राप्नोति लभते, शाश्वतमविनश्वर, सौख्यं निजात्मोत्यं परमानन्दलक्षणं सौख्यं । टोकाकर्तुः प्रशस्तिः नानाशास्त्रमहार्णवैकतरणे यद्बुद्धिरिश्रिया। पूर्णा पुण्यकविप्रमोदजननी सारेकनौकायते ॥ यत्पादाम्बुजयुग्ममाप्य मुनिभि भृगेरिवा 'प्यायते । स श्रीमान् श्रुतसागरो विजयतामेनस्तमोऽहप्प॑तिः ॥ १ ॥ मत्स्वामिसमन्तभद्रममलं श्रीकुन्दकुन्दाव्हयं । यो धीमानकलङ्कभट्टमपि च श्रीमत्प्रमेन्दुप्रभुं ॥ विद्यानन्दमपीक्षि तु कृतमनाः श्रीपूज्यपादं गुरुं । वीक्षेत श्रुतसागरं सविनयात् विद्यधीमन्नुतं ॥ २॥ अभिलाषा रखता हुआ इसका चिन्तन-मनन करता है वह निज . आत्मा से उत्पन्न होनेवाले परमानन्द रूप अविनाशी सुखको प्राप्त होता है ।।१०६॥ . आगे संस्कृत टीकाकार अपनी प्रशस्ति लिखते हैं... देदी यमान लक्ष्मी से पूर्ण तथा पुण्यशाली कवियों को आनन्द उत्पन्न . करनेवाला जिनकी बुद्धि नाना शास्त्र रूपी महासागर के तैरने में सुदृढ़ नौका के समान आचरण करती है, जिनके चरण कमलों के युगल को पाकर मुनि भ्रम के समान संतुष्ट हो जाते हैं तथा जो पाप रूपी अन्धकार को नष्ट करने के लिये सूर्य हैं वे श्रीमान् श्रुतसागर मुनि विजय को प्राप्त हों ॥१॥ - धीमत्-जो बुद्धिमान् श्रोभान् स्वामी समन्तभद्र, निर्मल कुन्द कुन्दाचार्य, अकलङ्कभट्ट, श्री प्रभाचन्द्रस्वामी, विद्यानन्द तथा श्री पूज्यपाद गुरुको देखनेकी इच्छा करता है अर्थात् उनकी रचनाओंका स्वाद जानना चाहता है वह विनयपूर्वक विद्य पदधारी विद्वानों के द्वारा स्तुत श्री श्रुतसागरको विनयसे देखे अर्थात् उनकी रचनाओंका पठन पाठन करे ॥२॥ १. रिवापीयते म००। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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