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-१. १७] दर्शनप्राभृतम्
जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिवभूयं । जर-मरण-वाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥१७॥ जिनवचनमौषधमिदं विषयसुखविरेचनममृतभूतम् ।
जरामरणव्याधिहरणं क्षयकरणं सर्वदुःखानाम् ॥१७।। (जिणवयणमोसहमिणं ) जिनवचनमौषधमिदम् इदम् पूर्वोक्तलक्षणं जिनवचनं सर्वज्ञ-वीतरागभाषितं हेतु-हेतुमद्भावसहितं औषधं वर्तते । कथंभूतं जिनवचनं औषधम् ? (विसयसुहविरेयणं) विषयाणां पञ्चेन्द्रियार्थानां स्पर्श-रसगन्ध-वर्ण-शब्दानां सम्बन्धित्वेन यत्सुखं विषयसुखं तस्य विरेचनं दूरीकरणम् । ( अमिदभूदं ) अमृतभूतं अविद्यमानं मृतं मरणं यत्र यस्माद्वा भव्यानां तदमृतभूत ____ गाथार्थ-यह जिनवचनरूपी औषधि विषयसुख को दूर करनेवाली है, अमृतरूप है, जरा और मरण को व्याधि को हरनेपाली है, तथा सब दुःखों का क्षय करनेवाली हैं ॥१७॥
विशेषार्थ-कार्य-कारणभाव से सहित सर्वज्ञ-वीतराग की वाणी को यहाँ औषधि की उपमा दी गई है-जिस प्रकार उत्तम औषधि शरीर के भीतर विद्यमान मल का विरेचन कर व्याधि को दूर करती है तथा मनुष्य के असामयिक मरण को दूर कर उसके सब दुःखों का क्षय कर देती है उसी प्रकार कार्य-कारणभाव-मित्त नैमित्तिकभाव से सहित जिनवाणीरूपी औषधि मनुष्य की आत्मा में विद्यमान पञ्चेन्द्रियों के विषयभून स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्दों के सम्बन्ध से होनेवाले विषयसुख का विरेचन करनेवाली है; अमृतरूप है-पीयूषतुल्य है, बुढ़ापा और मरण रूपी रोग को हरनेवाली है और शारीरिक, मानसिक तथा आगन्तुक दुःखों का क्षय करनेवाली है अर्थात् जड़ से उखाड़ कर उनका विध्वंस करनेवाली है ॥१७॥ .... [ यहाँ संस्कृत-टोकाकार ने जिनवचन की व्याख्या करते हुए उसे 'सर्वज्ञ-वोतरागभाषित' और 'हेतु-हेतुमद्भाव सहित' इन दो विशेषणों से विभूषित किया है । तथा इन विशेषणों से यह अभिप्राय सूचित किया है कि चूंकि जिनवचन सर्वज्ञ-वीतराग के द्वारा प्रतिपादित हैं, अतः प्रमाणभूत हैं । अन्यथा कथन करने में अज्ञान और कषाय ये दो ही कारण होते हैं, परन्तु जिनेन्द्र भगवान् के ज्ञानावरण कर्म का क्षय होने से केवलज्ञान प्रकट हो चुका है अतः अज्ञान के सद्भाव की अंश मात्र भो कल्पना नहीं हो सकती तथा मोह कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से कषाय
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