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________________ षप्राभूते [ १. १८अमृतोपमम् । अत एव ( जरमरणवाहिहरणं ) जरा-भरणव्याधिहरणं विनाशकम् । ( खयकरणं सव्वदुक्खाणं) क्षयकरणं मूलादुन्मूलकं सर्वदुःखानां शारीर-मानसागन्तुदुःखानां विध्वंसकमित्यर्थः ॥१७॥ एक्कं जिणस्स एवं बीयं उक्किटुसावयाणं तु । अवरट्रियाण तइयं चउत्थं पुण लिंगदंसणं गत्थि ॥१८॥ एकं जिनस्य रूपं द्वितीयमुत्कृष्टश्रावकाणां तु । अवरस्थितानां तृतीयं चतुर्थं पुनः लिङ्गदर्शनं नास्ति ।।१८।। ( एक्कं जिणस्स एवं ) एकमद्वितीयं जिनस्य रूपं नग्नरूपम् । (बीयं उक्किट्ठ सावयाणं तु ) द्वितीयमुत्कृष्टश्रावकाणां तु । उक्तं च आद्यास्तु षड् जघन्याः स्युमंध्यमास्तदनु त्रयः । शेषो द्वावुत्तमावुक्तौ जैनेषु जिनशासने ॥ भी-राग-द्वेषरूप परिणति भी विद्यमान नहीं है, अतः कषायजन्य अन्यथाकथन की भी अल्पतम संभावना नहीं है । इस प्रकार जिनवचन प्रमाणरूप हैं--वस्तु के सत्यस्वरूप - का प्रतिपादन करनेवाले हैं। दूसरे विशेषण से यह भाव सूचित किया है कि निमित्त को उपेक्षा कर मात्र उपादान की शक्ति से कार्य का समर्थन करनेवाले वचन जिनवचन नहीं हैं, क्योंकि कार्य की सिद्धि में उपादान और निमित्त दोनों साधक हैं। ] ॥१७॥ गाथार्थ-एक जिनेन्द्र भगवान का नग्न रूप, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकों का, और तीसरा आर्यिकाओं का; इस प्रकार जिनशासन में तीन लिङ्ग कहे गये हैं। चौथा लिङ्ग जिनशासन में नहीं है ।।१८।। विशेषार्थ-सकल और विकल के भेद से चारित्र के दो भेद हैं। इनमें से सकलचारित्र मुनियों के होता है। उनका लिङ्ग अर्थात् वेष नग्न दिगम्बर मुद्रा है। परिग्रहत्याग महाव्रत के धारक होने से उनके शरीर पर एक सूत भी नहीं रह सकता है। विकलचारित्र के धारकों के दर्शनिक १, प्रतिक २, सामयिको ३, प्रोषधोपवासी ४, सचित्तत्यागी ५, रात्रिभुक्तिविरत ६, ब्रह्मचारी ७, आरम्भविरत ८, परिग्रहविरत ९, अनुमतिविरत १०, और उद्दिष्टविरत ११; ये ग्यारह भेद होते हैं । इनमें से प्रारम्भ के ६ श्रावक जघन्य श्रावक, उनके पश्चात् तीन मध्यम श्रावक, और शेष के दो उत्कृष्ट श्रावक कहे जाते हैं। जिनागम में दूसरा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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