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षट्नामृते भवति ? ( सेयासेयं वियाणेदि ) श्रेयः पुण्यं विशिष्टतीर्थकर-नामकर्म, भश्रेयः पाप चतुर्गतिपरिभ्रमणकारणं विशेषेण जानीते । उक्तञ्च
न सम्यक्त्वसमं किञ्चित् काल्ये त्रिजगत्यति ।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्व समं नान्यत्तनूभृताम् ॥ सेयासेयविदण्हू उद्बुददुस्सील सीलवंतो वि । सोलफलेणब्भुदयं तत्तो पुण लहइ णिव्वाणं ॥१६॥ श्रेयोऽश्रेयोवेत्ता उद्धृतदुःशीलः शीलवानपि।
शोलफलेनाभ्युदयं ततः पुनः लभते निर्वाणम् ॥१६॥ ( सेयासेयविदहू ) श्रेयसः पुण्यस्य, अश्रेयसः पापस्य विदण्हू वेत्ता पुमान् । : (उद्घददुस्सील ) उन्मूलित दुःशील भवति । ( सोलवंतो वि ) शीलवान्. पुमान् ( सीलफलेण ) शोलफलेन कृत्वा । ( अन्भुदयं लहइ ) अभ्युदयं सांसारिक सुखं प्राप्नोति । ( तत्तो पुण णि ण्वाणं लहइ) ततः पुननिर्वाणं लभते मोक्ष प्राप्नोति ॥१६॥ अर्थात् सातिशय तीर्थंकर नामकर्म और पाप अर्थात् चतुर्गति के परिभ्रमण के कारण को विशेषरूप से जानता है । जैसा कि कहा है
नसम्यक्त्व-तीनों काल और तीनों लोकों में सम्यग्दर्शन के समान प्राणियों का दूसरा हितकारी नहीं है और मिथ्यात्व के समान अहितकारी नहीं है।
गाथार्थ-कल्याण और अकल्याण को जाननेवाला मनुष्य दुष्ट स्वभाव को उन्मूलित करता है तथा उत्तम शील-श्रेष्ठ स्वभाव से युक्त होता हुआ शील के फल स्वरूप सांसारिक सुख को प्राप्त होता है और उसके बाद मोक्ष प्राप्त करता है ॥१६॥
विशेषार्थ-जिसने श्रेय-सम्यक्त्व और अश्रेय-मिथ्यात्व को समझ लिया है वह दुःशील-दुष्ट स्वभाव विषय-काषयादिरूप परिणति को उखाड़ कर दूर कर देता है और शील से-आत्मपरिणति से युक्त मनुष्य शील के फलस्वरूप पहले तो अभ्युदयदेव तथा चक्रवर्ती आदि के सांसारिक सुख को प्राप्त होता है और उसके बाद निर्वाण को प्राप्त होता है ॥१६॥
१. रलकरणश्रावकाचारे समन्तभद्रस्य श्लोकसंख्या ३४.
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