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-१.१५]
पनित्रामृतम्
घटितापटितं सुवर्ण श्रीनिकेतन हाटकं कनकमिति यावत् । बभ्यन्तरग्रन्थक्च
तुर्दशभेदः
मिथ्यात्व-वेद-हास्यादिषट्-कषायचतुष्टयम् ।
राग-द्वेषौ च सङ्गाः स्युरन्तरङ्गाश्चतुर्दश ॥ सम्मत्तादो णाणं णाणादो सव्वभाव उवलद्धी। उवलद्धपयत्थे पुण सेयासेयं वियाणेदि ॥१५॥
सम्यक्त्वात् ज्ञानं ज्ञानात् सर्वभावोपलब्धिः । -, उपलब्धपदार्थे पुनः श्रेयोऽश्रेयो विजानाति ॥१५॥ ( सम्मत्तादो णाणं) सम्यक्त्वाज्ज्ञानं भवति, यस्य सम्यक्त्वं नास्ति स पुमानज्ञान एवेत्यर्थः । ( णाणादो सम्बभावउवली ) ज्ञानात् सर्वपदार्थानामुपमक जीवारिकताना जीवस्य परिक्षानं भवति । ( उक्लद्धपयत्थे पुण) उपलब्ध पदार्थे पुनः उपलब्धश्चासौ पदार्थः पयस्वस्मिन्नुपलब्धपदार्थे सति । कि कहलाते हैं। गाय, भैंस, ऊँट, हाथो, घोड़ा आदि चतुष्पद कहलाते है, वस्त्र, चन्दन तथा केशर आदि कुप्य कहे जाते हैं। तैल, घी आदि से भरे हुए बर्तन पात्र कहलाते हैं, तांबा चांदी नादि धातुएं हिरण्य कहलती हैं और जेवर रूम से घड़ा हुआ अथवा बिना घड़ा हुआ सुवर्ण कहलाता है। इसी सुवर्ण को श्रीनिकेतन ( लक्ष्मीका घर ), हाटक और कनक भी कहते हैं।
आभ्यन्तर परिग्रह के निम्नलिखित चौदह भेद हैं--
मिथ्यात्व-मिथ्यात्व एक, वेद एक, हास्यादि छह नोकषाय, क्रोध मादि चार कषाय, राग और द्वेष एक-एक, इस प्रकार अन्तरङ्ग परिग्रह .. के चौदह भेद हैं। . गाथार्थ-सम्यक्त्व से ज्ञान होता है, ज्ञान से समस्त पदार्थों की
उपलब्धि होती है, और समस्त पदार्थों को उपलब्धि होने पर यह जीव कल्याण और अकल्याण को विशेष रूप से जानता है ॥१५॥
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन से ज्ञान होता है, जिसके सम्यग्दर्शन नहीं है वह पुरुष अज्ञानी है। शान से हो मोक्षमार्गोपयोगी जीवादि तत्वों का परिज्ञान होता है तथा पदार्थों का परिखान होने पर यह मनुष्य पुण्य
१. मिथ्यात्ववेदरागास्तव हास्यात्यात पर दोषाः । नारच बायान
तुर्दताम्मतरा IImmigranल
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