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षट्प्राभूते
[ १. १४
भवति । ( णाणम्मि करणसुद्धे ) सम्यग्ज्ञाने कृत-कारितानुमोदनिर्मले सति । ( उब्भसणे ) उद्भभोजने च सति । ( दंसणं होदि ) सम्यक्त्वं भवति । मुनीनामिति शेषः । अथ कोऽसौ द्विविधो ग्रन्थ इत्याह – बाह्याभ्यन्तरभेद इति । तत्र बाह्यः परिग्रहः कथ्यते—
क्षेत्र वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदम् । 'कुप्यं भाण्डं हिरण्यं च सुवर्ण च बहिर्दश ॥
क्षेत्र सस्याधिकरणम् । वास्तु गृहम् । धनं द्रव्यादि । धान्यं गोधूमादि । द्विपदं दासी दासादि । चतुष्पदं गो-महिषी - वेसर- गजाश्वादि । कुप्यं कार्पासचन्दन - कुङ, कुमादि । भाण्डं तैल-घृतादिभृतं पात्रम् । हिरण्यं ताम्ररूप्यादि ।
वचनयोग और काययोग के भेद से योगके तीन भेद हैं । इन तीनों योगों में शुद्धि होने पर ही संयम अर्थात् चारित्र होता है; इसलिये मुनियों को उक्त तीनों योगों पर नियन्त्रण रखकर उनकी शुद्धि बनाये रखनो चाहिये । सम्यग्ज्ञान के कृत कारित अनुमोदना से निर्मल रहने पर तथा खड़े खड़े भोजन लेने पर मुनियों के सम्यक्त्व होता है अर्थात् सम्यग्दृष्टि मुनि अपने ज्ञान को सदा निर्मल रखते हैं और खड़े-खड़े पाणिपात्र में आहार करते हैं।
[ यहाँ आचार्य महाराज ने यह भाव प्रकट किया है कि जो साघु होकर भी वस्त्रादि परिग्रह रखते हैं, जिनके मन वचन काय की प्रवृत्ति मैं कोई प्रकार की शुद्धि नहीं है, जो इन्द्रियों के वशीभूत होकर अपने ज्ञान को निर्मल नहीं रख पाते हैं अर्थात् उसे विषयसामग्री की प्राप्ति के लिये आत्मस्वरूप को छोड़ अन्यत्र भ्रमाते हैं अथवा यन्त्र-मन्त्र आदि लौकिक कार्यों में उसे प्रयुक्त करते हैं और गृहस्थ के घर खड़े खड़े आहार न लेकर गोचरी द्वारा लाये हुए आहार को एक जगह बैठकर सुख-सुविधा से ग्रहण करते हैं उन्हें सम्यक्त्व नहीं है और सम्यक्त्व से हीन होने के कारण वे वन्दनीय नहीं हैं ]
बाह्य परिग्रह के दश भेद इस प्रकार हैं-
क्षेत्र - क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, कुप्य, भाण्ड, हिरण्य, और सुवर्ण ये बहिरङ्ग परिग्रह के दश भेद हैं। जिसमें अनाज उत्पन्न होता है ऐसे लेत को क्षेत्र कहते हैं; मकान को वास्तु कहते हैं, द्रव्य आदि को मन कहते हैं, गेहूँ आदि धान्य कहलाते हैं; दासो दास आदि विपद
6. 'यानं शय्यासनं कुप्यं भाग देहि
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