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-१. १४ ]
दर्शनप्रामृतम् 'भयाशांस्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम् ।
प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ॥ दुविहं पि गंथचायं तीसु वि जोएसु संजमो ठादि । णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दंसणं होई ॥१४॥ द्विविधमपि ग्रन्थत्यागं त्रिष्वपि योगेषु संयमस्तिष्ठति ।
ज्ञाने करणशुद्धे उद्भशने दर्शनं भवति ॥१४॥ (दुविहं पि गथंचायं ) द्विविधोऽपि ग्रन्थत्यागः । ( तीसु वि जोएसु) त्रिष्वपि योगेषु मनोवचन-कायशुद्धिषु । ( संजमो ठादि ) संयमश्चारित्र तिष्ठति
भयाशा-सम्यग्दृष्टि मनुष्य भय, आशा, स्नेह अथवा लोभ से कुदेव, कुआगम और कुलिङ्गियों को न प्रणाम करें और न उनकी विनय करें।
[सम्यग्दृष्टि मनुष्य, वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी रूप लक्षण से युक्त जिनेन्द्र देव को छोड़ किसी अन्य रागी-द्वेषी देव को; वीतरागसर्वज्ञ जिनेन्द्र की आम्नाय में लिखित, स्याद्वाद सिद्धान्त से ओतप्रोत एवं अहिंसामय सिद्धान्त के समर्थक शास्त्र को छोड़ अन्य रागी-द्वेषी लोगों के द्वारा लिखित एकान्तरूप एवं हिंसादि पापों के समर्थक शास्त्र को; और विषयों की आशा से रहित एवं ज्ञान-ध्यान में लीन निर्ग्रन्थ गुरु को छोड़ कर अन्य रागी-द्वेषो गुरु को; भय, आशा, स्नेह और लोभ के वशीभूत हो स्वप्न में भी नमस्कार नहीं करता । उसको दृष्टि से मोहजन्य विकार दूर हो जाता है, अतः वह वस्तु के शुद्ध स्वरूप को समझ कर वास्तविक प्रवृत्ति करता है।
. गाथार्य-जो मुनि दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग करते हैं, तीनों योगों पर संयम रखते हैं अर्थात् मन वचन काय की प्रवृत्तिपर नियन्त्रण • रखते हैं, ज्ञान को इन्द्रियों के विषयों से शुद्ध रखते हैं अर्थात् इन्द्रियों के
वशीभत हो ज्ञान को मलिनं नहीं करते अथवा कृत कारित अनुमोदना से ज्ञान को निर्मल रखते हैं और खड़े होकर भोजन करते हैं उन्हीं मुनियों के सम्यक्त्व होता है ॥१४॥
विशेषार्थ-बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग के भेद से परिग्रह के दो भेद हैं। मुनियों को उक्त दोनों परिग्रहों का त्याग करना आवश्यक है। मनोयोग, १. रत्नकरण्डश्रावकाचारे श्लोकसंख्या ३०.
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