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________________ - ५.८ ] भावप्राभृतम् एकापि समर्थेयं जिनभक्तिदु गति निवारयितुं । पुण्यानि च पूरयितुं दातु मुक्ति श्रियं कृतिनः ॥ १ ॥ कासी जिनभावना ? लोकप्रसिद्ध दोधकमिदम् जिण पुज्जहि जिणवरु थुणहि जिणहं म खंडहि आण | जे जिणघम्मिसु रत्तमण ते जाणिज्जइ जाण ॥ एक्कहि फुल्लाह माटिदेइ जु सुरनररिद्धडी । एही करइ कुसाटिवपु भोलिम जिणवरतणी ॥ अन्यच्च -- "सुखयतु सुखभूमिः कामिनं कामिनीव सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनक्तु । कुलमिवं गुणभूषा कन्यका संपुनीता - जनपतिपदपद्मप्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मीः ॥ १ ॥ एकापि समर्थेयं - यह एक ही जिन भक्ति, दुर्गति को दूर करने, पुण्य को पूर्ण करने तथा कुशल मनुष्यको मोक्ष-लक्ष्मी प्रदान करने के लिये समर्थ है ||१|| प्रश्न - वह जिन भावना क्या है ? उत्तर- इस लोक प्रसिद्ध दोहा में जिनभावना का स्वरूप स्पष्ट है । जिणपुज्जहि- जिनेन्द्र भगवान्को पूजा करो, जिनेन्द्र देव की स्तुति करो, जिनेन्द्र देवकी आज्ञा का खण्डन न करो। जो जिन धर्मके धारकों में रक्तचित्त हैं-सह-धर्मी जनों से वात्सल्य भाव रखते हैं वे ही ज्ञानी हैं, ऐसा जान । २५३ एक्कहि-जो भगवान्को एक फूल चढ़ाता है उसे समवसरणमें अनेक फूल प्राप्त होते हैं अर्थात् वह पुष्पवृष्टि नामक प्रातिहार्य को प्राप्त होता है। वह जीव ज्यों ज्यों जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करता है त्यों त्यों 'उसके पाप नष्ट होते जाते हैं । और भी कहा है - Jain Education International सुखयतु - जिस प्रकार वैषयिक सुखकी भूमि-स्वरूप स्त्री अपने पति सुखी करती है उसी प्रकार आत्म-जन्य सुखकी भूमि, जिनेन्द्र देवके चरण कमलों का अवलोकन करने वाली सम्यग्दर्शन रूपी लक्ष्मी मुझे सुखी की। जिस प्रकार शुद्धशोला -- पातिव्रत्य धर्मसे युक्त माता पुत्र की १. रत्नकरण्ड श्रावकाचारे समन्तभद्रस्य । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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