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षट्प्राभृते
एवमर्थ ज्ञात्वा ये जिनपूजनस्नपनस्तवननवजीर्णचैत्यचैत्यालयोद्धारणयात्राप्रतिष्ठादिकं महापुण्यं कर्मविध्वंसकं तीर्थंकरनामकर्म दायकं विशिष्टं निदानरहितं प्रभावनाङ्ग ं गृहस्थाः सन्तोऽपि निषेधन्ति ते पापात्मनो मिथ्यादृष्टयो नरकादिदुःखं चिरकालमनुभवन्ति अनन्तसंसारिणो भवन्तीति भावार्थः ।
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सत्तसु नरयावासे दारुणभीसाइं असहनीयाई । भुताई सुइरकालं दुक्खाई' निरंतरं सहियाई ॥ ९ ॥ सप्तसुनरकवासे दारुणभीष्माणि असहनीयानि । भुक्तानि सुचिरकालं दुःखानि निरन्तरं स्वहित ||१९||
. ( सत्तसुनरयावा से ) सप्तानां सुनरकाणां महानरकाणां वासे निवासे सति हे जीव ! ( दारुणभीसाई ) दारुणानि तीव्राणि, भीष्माणि भयानकानि । ( असहणीयाई ) असहनीयानि असह्यानि सोढुमशक्यानि । ( भुत्ताइ ) भुक्तानि अनुभूतानि । ( सुइरकालं ) सुष्ठु अतीव चिरकालं दीर्घकालं एकसागरमारभ्य।
रक्षा करती है उसी प्रकार शुद्धशीला निरतिचार शीलव्रतों से युक्त सम्यग्दर्शन रूपी लक्ष्मी मेरी रक्षा करे और जिस प्रकार गुणभूषा--गुणरूपी आभूषणों से युक्त कन्या कुलको पवित्र करती है उसी प्रकार मूलगुण अथवा प्रशम संवेग आदि गुणोंसे युक्त सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी मुझे पवित्र करो ॥ १॥
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इस तरह अर्थ को जानकर जो जिन पूजन जिनाभिषेक, जिनस्तवन, नवीन अथवा जीर्ण मूर्ति और मन्दिरों का निर्माण अथवा जीर्णोद्वार, यात्रा तथा प्रतिष्ठा आदि महान् पुण्य कर्मका और कर्मोंको नष्ट करने वाले, तीर्थंकर नाम कर्म के दायक, निदान रहित विशिष्ट प्रभावना अङ्गका गृहस्थ होते हुए भी निषेध करते हैं, वे पापी मिथ्यादृष्टि चिर काल तक नरकादि दुःख को भोगते हैं और अनन्त संसारी होते हैं अर्थात् अनन्त कालतक संसारमें भ्रमण करते रहते हैं ||८||
गाथार्थ - हे स्वहित ! हे आत्म-हित के वाञ्छक भव्य पुरुष ! तूने सात नरकोंके निवास में अत्यन्त कठोर भयंकर असहनीय दुःख चिरकाल तक निरन्तर भोगे हैं ||९||
विशेषार्थ - हे जीव ! तूने सात महानरकोंके निवासमें तीव्र भयानक, असहनीय दुख दीर्घकाल तक अर्थात् उत्कृष्ट आयुकी अपेक्षा एकसागरसे
१. महापुण्यं कर्म म० ।
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