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________________ २६ - जैनधर्म द्वारा प्रतिपादित आत्मकल्याणके विशुद्ध मार्गपर जीव सदा अग्रसर रहें । इस दृष्टिसे यह ग्रन्थ एक आदर्श जीवनको प्रकाशित करने वाली वह महान् अमरकृति है जो जीवोंको युगों-युगों तक आलोकित करती रहेगी । यहाँ अष्ट पाहुडमें संग्रहीत प्रत्येक पाहुडका संक्षिप्त विषय परिचय प्रस्तुत है— १. दंसण पाहुड - छत्तीस गाथाओं द्वारा इस पाहुडमें सम्यग्दर्शनकी महत्ता - का विवेचन है । इसमें बतलाया है कि सम्यक्त्वरूपी रत्नसे भ्रष्ट मनुष्य भले ही. अनेक प्रकारके शास्त्रोंको जानते हो तो भी जिनवचनोंकी श्रद्धासे रहित होने के कारण वहीं के वहीं घूमते रहते हैं ।' जिस तरह जड़ (मूल) के नष्ट हो जानेपर उस वृक्षके परिवार अर्थात् स्कन्ध, शाखा, पत्र, पुष्प, फलादिकी वृद्धि नहीं होती उसी प्रकार सम्यग्दर्शन रूप मूलके नष्ट होनेपर चारित्रकी वृद्धि नहीं होती । अतः जो मनुष्य जिनदर्शन (जिनमत ) से भ्रष्ट हैं वे जड़ (सम्यग्दर्शन) से रहित होनेसे मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते । इसीलिए जो कार्य किया जा सकता है वह अवश्य करना चाहिए और जिसका करना शक्य नहीं है उसका श्रद्धान करना चाहिए । क्योंकि केवलज्ञानी जिनेन्द्र भगवान् ने श्रद्धान करनेवाले पुरुषको सम्यग्दर्शन कहा है अर्थात् श्रद्धान् करने वाले पुरुषके सम्यक्त्व होता है । इस प्रकार इस सम्पूर्ण पाहुडको प्रत्येक गाथा सम्यग्दर्शनकी महिमाके विवेचन से ओतप्रोत है । २. चारित पाहुड - इस पाहुड में पैंतालीस गाथायें हैं, जिनमें मुख्य रूपसे सम्यक् चारित्रका स्वरूप और इसके भेद-प्रभेदोंका विवेचन किया गया है। इसमें श्रमण और श्रावक दोनोंके आचारका प्रतिपादन 'गागर में सागर' की तरह मिलता है । इस पाहुड में कहा है कि जो ज्ञान-मार्ग अर्थात् सम्यग्ज्ञानके द्वारा सम्यक्त्व आचरण में उत्साह रखता है, उसीकी भावना करता है, आत्माको शरीर और कर्मसे पृथक् समझता है, अर्हत आदि स्तुति और सुगुरु आदिकी सेवा करता है, साथ ही वह सम्यग्दर्शन में श्रद्धा रखता हैं वह जिन- सम्यक्त्वको नहीं छोड़ता ४ इसीलिए जो ज्ञानी पुरुष चारित्रका पालन करता हुआ आत्माके सिवाय अन्य १. दंसण पाहुड गाथा ४. २ . वही गाथा १०. ३. जं सबकइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं । केवलिजिणेहि भणियं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं | वही, गाथा २. ४. चारित पाहुड गाथा १३. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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