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षट्प्राभृते [५.५६तं भावलिंग केरिसं हवदि तं जहातद्भावलिंग कीदृशं भवति तद्यथा-तदेव निरूपयन्ति भगवन्तःदेहादिसंगरहिओ माणकसाएहि सयलपरिचत्तो। अप्पा अप्पम्मि रओ स भावलिंगी हवे साहू ॥५६॥
देहादिसंगरहितः मानकषायैः सकलपरित्यक्तः। - आत्मा आत्मनि रतः स भावलिङ्गी भवेत् साधुः ॥ ५६॥ .
( देहादिसंगरहिओ ) देहः शरीरं स आदिर्येषां पुस्तककमण्डलुपिच्छपट्टशिष्यशिष्याछात्रादीनां कर्मनोकर्मद्रव्यकर्मभावकर्मादीनां संगानां चेतनाचेतनबहिरंगान्तरंगपरिग्रहाणां ते देहादिसंगा । अथवाऽऽगमभाषया
क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदं । हिरण्यं च सुवर्ण च कुप्यं भांडं वहिर्दश ॥१॥ मिथ्यात्ववेदहास्यादिषट् कषायचतुष्टयं ।
रागद्वेषो च संगाऽस्युरन्तरङ्गाश्चतुर्दश ॥२॥ इति श्लोकद्वयकथितक्रमेण चतुर्विंशतिपरिग्रहास्तेभ्यो रहितो देहादिसंगरहितः ।
वह भावलिङ्ग कैसा होता है ? यही श्री कुन्दकुन्द भगवान निरूपण करते हैं
गाथार्थ-जो शरीर आदि परिग्रह से रहित है, मान कषायसे पूर्णतया निम क्त है तथा जिसकी आत्मा आत्मस्वरूपमें लीन है वह साधु भावलिङ्गी होता है । ५६ ॥
विशेषार्थ-देह शरीरको कहते हैं उसे आदि लेकर पुस्तक कमण्डलु पिच्छी पटट शिष्य, शिष्या तथा छात्र आदि, अथवा कर्म, नोकर्म, द्रव्यकर्म, भावकर्म आदि अथवा चेतन अचेतन बहिरङ्ग परिग्रह ये सब देहादिसंग कहलाते हैं । अथवा आगमको भाषासे
क्षेत्रं वास्तु-खेत, मकान, धन, धान्य, द्विपद-दासी दास, चतुष्पदगाय भैंस घोड़े आदि पशु, चाँदी, सुवर्ण, वस्त्र तथा वर्तन ये दश बाह्य परिग्रह हैं।
मिथ्यात्व-मिथ्यात्व, वेद, हास्यादि ६ नोकषाय, चार कषाय, राग और द्वेष ये चौदह अन्तरङ्ग परिग्रह हैं ।
जो मुनि पूर्वोक्त दोनों श्लोकों में कहे गये चौबीस प्रकार के परिप्रहसे दूर रहता है उसे देहादि संग-रहित बतलाया गया है। इसके सिवाय जो
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