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________________ -५.५७ ] भावप्राभृतम् ३८३ ( माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो) मानकषायैः सकलपरित्यक्तः मनोवचनकार्यं रहितः । ( अप्पा अप्पम्मि रओ) आत्मा आत्मनि रतः । य एवं विघः ( स भावलिंगी हवे साहू ) स साघुर्भावलिंगी भवेत् । ममत्त परिवज्जामि निम्ममत्तिभुवट्टिदो । आलंबणं च मे आदा अवसेसाई वोसरे ॥ ५७ ॥ ममत्वं परिवर्णामि निर्ममत्वमुपस्थितः । आलम्बनं च मे आत्मा अवशेषाणि व्युत्सृजामि ॥ ५७ ॥ ( ममत परिवज्जामि ) ममत्वं ममतां ममेदमहमस्येति भावं परिवर्जामि परिहरामि । ( निम्ममत्तमुवट्ठिदो ) निर्ममत्वमिति भावमुपस्थित आश्रितः । ( आलंबणं च में आदा ) यद्येवं ममत्वं परिहरसि निषेधं करोषि तहि कं विधि श्रयसि “एकस्य निषेधोsपरस्य विधिः" इति वचनात् द्वयमत्रति पृष्टे उत्तरं ददाति आलम्बनं चाश्रयो मे मम आदा आत्मा निजशुद्धबुद्ध कजीवपदार्थं इति विधिः । सब प्रकारके मान कषायों से मुक्त हो तथा जिसकी आत्मा आत्मा में ही लीन रही है, वह साघु भावलिङ्गी कहा जाता है । [ यहाँ अन्य परिग्रहोंके त्यागके साथ शरीर के त्यागका भी उल्लेख किया है सो शरीर वस्त्र आदि के समान सर्वथा भिन्न परिग्रह तो है नहीं तब इसका त्याग किस प्रकार हो सकता है । इस प्रश्नका उठना स्वाभाविक है परन्तु उसका उत्तर यह है कि शरीरसे ममता भावका छोड़नाही शरीर रूप परिग्रहको त्यागना है । ] गावार्थ - में निर्ममभाव को प्राप्त होकर ममता भावको छोड़ता हूँ । अब चूंकि मेरा आलम्बन मेरो ही आत्मा है अतः अन्य समस्त भावोंको छोड़ता हूँ ॥ ५७ ॥ विशेषार्थ - 'यह मेरा है और मैं इसका हूँ' इस प्रकार के भावको ममत्व कहते हैं। मैं इस ममत्व भावको छोड़ता हूँ और निर्ममत्व भावको प्राप्त होता हूँ । यदि इस प्रकार ममत्व भावको छोड़ते हो अर्थात् इसका निषेध करते हो तो फिर किस विधिका आश्रय लेते हो क्योंकि 'एक का निवेष होता है और दूसरे को विधि होती है, ऐसा आगम का वचन है ? अतः यहाँ विधि और निषेध दोनों का समन्वय क्या है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य महाराज उत्तर देते हैं कि मेरा आलम्बन मेरा शुद्ध बुद्ध स्वभाव वाला आत्मा है अर्थात् यह विधि हुई और आत्मा से अतिरिक्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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