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[५.५८
षट्नाभृते ( अवसेसाई वोसरे ) अवशेषाणि आत्मन उद्धरितानि रागद्वेषमोहादीनि व्युत्सृजाभि परिहरामि।
आदा खु मज्म णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य । आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे॥ ५८ ॥
आत्मा खल मम ज्ञाने आत्मा मे दर्शने चरित्रे च ।
आत्मा प्रत्याख्याने आत्मा मे संवरे योगे॥ ५८॥ .. (आदा खु मज्झ णाणे ) आत्मा निजचैतन्यस्वरूपो जीवपदार्थः ख स्फुटं मम ज्ञाने ज्ञानकार्य, ज्ञाननिमित्तं ममात्मैव वर्तते नात्यत्किमपि ज्ञानोपकारणादिकं पुस्तकपटिटकादिकमिति भावः । ( आदा मे दंसणे चरित्ते य ) आत्मा मे दर्शने सम्यक्त्वे सम्यग्दर्शनकार्ये नान्यत्किमपि तीर्थयात्राजिनप्रतिष्ठाशास्त्रश्रवणवन्दनस्तवनादिकं इत्यादि सम्यक्त्वोत्पत्तिकारणं । चरित्रे च ममात्मैव-चारित्रकार्ये ममात्मैव वर्तते न तु नानाविकल्परूपं व्रतसमितिगुप्तिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयादिकमास्रवनि
रागद्वेष मोह आदिको छोड़ता हूँ, यह निषेध हुआ। परम भेद-विज्ञान के द्वारा यहाँ निज शुद्ध बुद्ध आत्मा को उपादेय तथा रागादि विकार भावों. को हेय बतलाया है ।। ५७ ॥ . ___ गाथार्थ-निश्चय से मेरे ज्ञानमें आत्मा है, सम्यग्दर्शन में आत्मा है, चारित्र में आत्मा है, प्रत्याख्यान में आत्मा है, संवर में आत्मा है और योग-ध्यान में आत्मा है ।। ५८॥
विशेषार्थ-यहां निश्चयनय की अपेक्षा गुण और गुणी का अभेद कथन करते हुए कहा गया है कि ज्ञान गुण में निज चैतन्य स्वरूप मेरा आत्मा ही विद्यमान है । अथवा ज्ञान रूप कार्य की उत्पत्ति में मेरा आत्मा ही निमित्त है, ज्ञानके उपकरणादिक जो पुस्तक तथा पट्टी आदि हैं वे कारण नहीं हैं । दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व में मेरा आत्मा ही विद्यमान है अथवा सम्यक्त्व रूप कार्य की उत्पत्ति में मेरा आत्मा ही कारण है अन्य तीर्थयात्रा, जिन-प्रतिष्ठा, शास्त्र-श्रवण, वन्दना तथा स्तवन आदि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारण नहीं हैं। चारित्र में भी मेरा आत्मा ही विद्यमान है अथवा चारित्र रूप कार्य की उत्पत्ति में मेरा आत्मा हो कारण है, अन्य नाना विकल्प रूप व्रत समिति गुप्ति धर्म अनुप्रेक्षा और परीषहजयादिक कारण नहीं हैं । आगामी दोषोंका निराकरण करना प्रत्याख्यान है । इस प्रत्यास्थान में मेरा आत्मा ही विद्यमान है अथवा प्रत्याख्यान की उत्पत्ति में मेरा आत्मा ही कारण है, अन्य गुरु शिष्यादि
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